Book Title: Jinabhashita 2007 12
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 7
________________ रामचन्द्र जी के अविचारित वचन सुनकर सीता जी । मिथ्यादृष्टि हैं। कषाय के असंख्यात - लोक - प्रमाण स्थान को संसार से वैराग्य हो चुका था, पर 'निःशल्यो व्रती'= व्रती को नि:शल्य होना चाहिये। इसलिए उन्होंने दीक्षा लेने से पहले परीक्षा देना आवश्यक समझा था । परीक्षा में वह पास हो गईं। हैं। उनमें उनका स्वरूप यों ही शिथिल हो जाना प्रशम गुण है । मिथ्यादृष्टि अवस्था के समय इस जीवकी विषयकषाय में जैसी स्वच्छन्द प्रवृत्ति होती है, वैसी सम्यग्दर्शन होने पर नहीं होती । यह दूसरी बात है कि चारित्रमोह के उदय से वह उसे छोड़ नहीं सकता हो, पर प्रवृत्ति में शैथिल्य अवश्य आ जाता है । प्रशम का एक अर्थ यह भी है, जो पूर्व की अपेक्षा अधिक ग्राह्य है- 'सद्यः कृतापराधी जीवों पर भी रोष उत्पन्न नहीं होना' प्रशम कहलाता है । बहुरूपिणी विद्या सिद्ध करते समय रामचन्द्र जी ने रावण पर जो रोष नहीं किया था वह इसका उत्तम उदाहरण है । प्रशम गुण तब तक नहीं हो सकता, जब तक अनन्तानुबन्धी-सम्बन्धी क्रोध विद्यमान है। उसके छूटते ही प्रशम गुण प्रकट हो जाता है। क्रोध ही क्या अनन्तानुबन्धीसम्बन्धी मान माया लोभ-सभी कषाय प्रशमगुण के घातक हैं । रामचन्द्र जी ने उनसे कहा- 'देवि ! घर चलो, अब तक हमारा स्नेह हृदय में था, पर लोक-लाज के कारण आँखों में आ गया है । ' सीताजी ने नीरस स्वर में कहा- 'नाथ ! यह संसार दुःखरूपी वृक्ष की जड़ है अब मैं इसमें न रहूँगी। सच्चा सुख इसके त्याग में ही है । ' रामचन्द्र जी ने बहुत कुछ कहा- 'यदि मैं अपराधी हूँ, तो लक्ष्मण की ओर देखो, यदि यह भी अपराधी है तो अपने बच्चों लव - कुश की ओर देखो और एक बार पुनः घर में प्रवेश करो।' पर सीता जी अपनी दृढ़ता से च्युत नहीं हुईं। उन्होंने उसी समय केश उखाड़ कर रामचन्द्र जी के सामने फेंक दिये और जंगल में जाकर आर्यिका बन गईं। यह सब काम सम्यग्दर्शन का है, यदि उन्हें अपने आत्मबल पर विश्वास न होता, तो वह क्या यह सब कार्य कर सकती थीं? कदापि नहीं ! अब रामचन्द्र जी का विवेक देखिये। जो रामचन्द्र सीता के पीछे पागल हो रहे थे, वृक्षों से पूछते थे कि क्या तुमने मेरी सीता देखी है? वही जब तपश्चर्या में लीन थे सीता के जीव प्रतीन्द्र ने कितने उपसर्ग किए पर वह अपने ध्यान से विचलित नहीं हुये । शुक्लध्यान धारण कर केवली अवस्था को प्राप्त हुए । सम्यग्दर्शन से आत्मा में प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और आस्तिक्य गुण प्रकट होते हैं, जो सम्यग्दर्शन के अविनाभावी हैं। यदि आप में यह गुण प्रकट हुये हैं, तो समझ लो कि हम सम्यग्दृष्टि हैं। कोई क्या बतलायगा कि तुम सम्यग्दृष्टि हो या मिथ्यादृष्टि । अप्रत्याख्यानावरण कषाय का संस्कार छह माह से ज्यादा नहीं चलता । यदि आपमें किसी से लड़ाई होने पर छह माह से बाद तक बदला लेने की भावना रहती है, तो समझ लो अभी हम संसार और संसार के कारणों से भीत होना ही संवेग है। जिसके संवेग गुण प्रकट हो जाता है वह सदा आत्मा में विकार के कारणभूत पदार्थ से जुदा होने के लिये छटपटाता रहता है। Jain Education International सब जीवों में मैत्री भाव का होना ही अनुकम्पा है । सम्यग्दृष्टि जीव सब जीवों को समान शक्ति का धारी अनुभव करता है। वह जानता है कि संसार में जीव की जो विविध अवस्थाएँ हो रही हैं, उनका कारण कर्म है, इसलिए वह किसी को नीचा- ऊँचा नहीं मानता। वह सबमें समभाव धारण करता है। संसार, संसार के कारण, आत्मा और परमात्मा आदि में आस्तिक्य भाव का होना ही आस्तिक्य गुण है। यह गुण भी सम्यग्दृष्टि में ही प्रकट होता है, इसके बिना पूर्ण स्वतन्त्रता की प्राप्ति के लिये उद्योग कर सकना असम्भव है। ये ऐसे गुण हैं जो सम्यग्दशन के सहचारी हैं और मिथ्यात्व तथा अनन्तानुबन्धी कषाय के अभाव में होते हैं वर्णी - वाणी १ / ३२८-३३३ अपनी मनोवृत्ति पर नियंत्रण करना ही आत्मानुशासन है । मन पर नियंत्रण इन्द्रिय नियंत्रण का कारण है । इन्द्रियों का नियंत्रण होने पर ही संसारपरिभ्रमण (शांत) वश में हो सकता है। जो मन के आधीन है, वह इन्द्रियाधीन होता हुआ संसार चक्र से छूट नहीं सकता । For Private & Personal Use Only दिसम्बर 2007 जिनभाषित 5 www.jainelibrary.org

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