Book Title: Jinabhashita 2006 10
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 2
________________ आचार्य - स्तुति आचार्य श्री विद्यासागर जी अरहंत परमेष्ठी आचार्य पद को पृथक् ग्रहण न करके साधु पद के अंतर्गत ही रखा के बाद आचार्य परमेष्ठी गया है। आचार्य तो साधु की ही एक उपाधि है, जिसका विमोचन मोक्ष-प्राप्ति के पूर्व होना अनिवार्य है। जहाँ राग का थोड़ा भी अंश सिद्ध परमेष्ठी को यहाँ शेष है, वहाँ अनन्त पद की प्राप्ति नहीं हो सकती। इसीलिये ग्रहण नहीं किया गया, क्योंकि साधना में लीन साधु की वंदना और तीन प्रदक्षिणा आचार्य उपयोगिता के आधार पर ही महत्त्व द्वारा की जाती है। दिया जाता है। जैनेतर साहित्य में भी भगवान से बढ़कर गुरु मैंने अभी दो दिन पूर्व थोड़ा विचार किया इस बात पर कि की ही महिमा का यशोगान किया है। भगवान् महावीर अपने साधनाकाल में दीक्षा के उपरान्त बारह वर्ष गुरु गोविन्द दोनों खड़े काके लागूं पाय। तक निरन्तर मौन रहे। कितना दृढ़ संकल्प था उनका। बोलने में बलिहारी गुरु आपकी गोविंद दियो बताय।। सक्षम होते हुये भी वचनगुप्ति का पालन किया। वचनव्यापार 'बताय' शब्द के स्थान पर यदि ‘बनाय' शब्द रख रोकना बहुत बड़ी साधना है। लोगों को यदि कोई बात करनेवाला न दिया जाय, तो अधिक उपयुक्त होगा, क्योंकि गुरु शिष्य को मिले,तो वे दीवाल से ही बातें करने लगते हैं। एक साधु थे। नगर से भगवान् बना देते हैं। इसीलिये उन्हें तरणतारण कहा गया है। बाहर निकले इसलिये कि कोई उनसे बातें न करें, किन्तु फिर भी गरु स्वयं तो सत्पथ पर चलते हैं. दसरों को भी चलाते हैं। एक व्यक्ति उनके साथ हो गया। और बोला “महाराज, मझे अपने चलनेवाले की अपेक्षा चलानेवाले का काम अधिक कठिन जैसा बना लें। मैं आपकी सेवा करता रहूँगा। आपको कोई न कोई है। रास्ता दूसरों को तारता है, इसलिए वह तारण कहलाता है। सेवक तो चाहिए अवश्य सेवा करने के लिये।" साधु बड़े पशोपेश पुल भी तारण है। किन्तु रास्ता और पुल दोनों स्वयं खड़े रह में पड़ गये। आखिर बोले, "सबसे बड़ी मेरी सेवा आप ये ही करो जाते हैं। गरु स्वयं भी तैरते हैं और दसरों को भी तैराते हैं। कि बोलो नहीं। बोलना बन्द कर दो।" बोलनेवालों की कमी नहीं इसलिए उनका महत्त्व शब्दातीत है। आचार्य उस नौका के है, प्रायः सर्वत्र मिल जाते हैं। मुझे स्वयं भी एक ऐसी घटना का समान हैं, जो स्वयं नदी के उस पार जाती है और अपने साथ सामना करना पड़ा मदनगंज, किशनगढ़ में। ब्रह्मचर्य अवस्था में अन्यों को भी पार लगाती है। एक स्थान पर बैठकर मैं सूत्रजी पढ़ रहा था। एक बूढ़ी माँ आईं और भगवान् महावीर की वाणी गणधर आचार्य की मुझसे कुछ पूछने वहीं बैठ गयीं। मैं मौन ही रहा, परन्त धीरे धीरे अनुपस्थिति होने से छियासठ दिन तक नहीं खिरी। आचार्य । वहाँ और भी कई मातायें आकर बैठने लगीं और दूसरे दिन से मुझे ही उस वाणी को विस्तार से समझाते हैं। वे अपने शिष्यों को वह स्थान छोड़ना पड़ा। विविक्त शय्यासन अर्थात् एकांतवास भी आलम्बन देते हैं, बुद्धि का बल प्रदान करते हैं,साहस देते हैं। करते साहसोते । एक तपा एक तप है, जिसे साधु तपता है, इसलिए कि एकान्त में ही अन्दर जो उनके पास दीक्षा लेने जाये, उसे दीक्षा देते हैं और अपने से काआवाज सुनाई पड़ता हा बालन की आवाज सुनाई पड़ती है। बोलने में साधना में व्यवधान आता है। भी बड़ा बनाने का प्रयास करते हैं। वे शिष्य से यह नहीं आचार्य कभी भी स्वयं को आचार्य नहीं कहते। वे तो दूसरों कहते - "तु मझ जैसा बन जा", वे तो कहते हैं - "त को बड़ा बनाने में लगे रहते हैं, अपने को बड़ा कहते नहीं। कोई भगवान् बन जाय।" और उन्हें कहे, तो वे उसका विरोध भी नहीं करते और विरोध मोक्षमार्ग में आचार्य से ऊँचा साधु का पद है। आचार्य करना भी नहीं चाहिए। गाँधीजी के सामने एक बार यह प्रश्न आया। अपने पद पर रहकर मात्र उपदेश और आदेश देते हैं, किन्तु एक व्यक्ति उनके पास आया और बोला, “महाराज, आप बड़े एक साधना पूरी करने के लिये साधु पद को अंगीकार करते हैं। चतुर हैं, अपने आप को महात्मा कहने लग गये।" गाँधीजी बोले, चतुरह, अप मोक्षमार्ग का भार साधु ही वहन करता है। इसीलिये चार "भैया मैं अपने को महात्मा कब कहता हूँ। लोग भले ही कहें, मुझे मंगल पदों में, चार उत्तम पदों में और चार शरण पदों में क क्या ? मैं किसी का विरोध क्यों करूँ?" 'समग्र' (चतुर्थ खण्ड) से साभार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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