Book Title: Jinabhashita 2004 09
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 10
________________ क्षायिक भाव कहे जाते हैं। क्षायिक सम्यक्त्व, चारित्र, ज्ञान, दर्शन, दान, लाभ, भोग, उपभोग, वीर्य । 3. जो भाव कर्मों के क्षयोपशम से प्रकट होते हैं वह क्षायोपशमिक भाव कहलाते हैं। मतिज्ञान आदि । क्षयोपशम : वर्तमान में उदय होने वाले सर्वघाती स्पर्द्धकों का उदयाभावी क्षय, देशघाती स्पर्द्धकों का उदय तथा आगामी काल में उदय आने वाले स्पर्द्धकों का सवस्था रूप उपशम क्षयोपशम कहलाता है। मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय ज्ञान, कुमति, कुश्रुत, कुअवधि ज्ञान, चक्षु, अचक्षु, अवधिदर्शन, दान, लाभ, भोग, उपभोग, वीर्य, सम्यक्त्व, चारित्र, संयामासंयम । 4. जो भाव कर्मों के उदय से होता है, वह औदयिक भाव कहलाता है। चार गति, चार कषाय, तीन लिंग, मिथ्यादर्शन, अज्ञान, असंयत, असिद्धत्व, छ: लेश्या । 5. जो भाव कर्मों के उपशम, क्षय आदि की अपेक्षा के बिना ही होते हैं । वह पारिणामिक भाव कहलाते हैं। जीवत्व, भव्यत्व, अभव्यत्व । इस प्रकार 53 भावों के संदर्भ में जानने से स्पष्ट हो जाता है कि पूर्व आचार्यों ने संयमासंयम को क्षयोपशम संस्मरण सचमुच, आचार्य महाराज अतिथि हैं। कब/कहाँ पहुँचेंगे, कहा नहीं जा सकता। उनका यह अनियत विहार कठिन भले ही है, लेकिन बड़ा स्वाश्रित है । विहार की बात पहले से कह देने में दो मुश्किलें खड़ी हो जाती हैं। यदि किसी कारण निर्धारित समय पर विहार न कर पाए तो झूठ का दोष लगा और जब तक विहार नहीं किया तब तक विहार का विकल्प बना रहा। इससे अच्छा यही है कि क्षण भर में निर्णय लिया और हवा की तरह नि:संग होकर 8 सितम्बर 2004 जिनभाषित भाव के अठारह भेदों में रखा है। न ही औपशमिक, क्षायिक भावों में और न ही औदयिक, पारिणामिक भावों में । Jain Education International सर्वार्थसिद्धि ग्रन्थ में महान आचार्य श्री पूज्यपाद स्वामी ने संयमासंयम किन कर्मों के क्षयोपशम से किस प्रकार उत्पन्न होता है, उसका उल्लेख इस प्रकार किया है 1:0 असीम-वात्सल्य । सारा संघ मुक्तागिरि की ओर जा रहा था। सुबह का समय था। सभी ने सोचा कि समीपस्थ मोर्सी ग्राम तक विहार होगा, सो आसानी से चलकर नौ-दस बजे तक पहुँच जाएँगे। जब दस बजे हम मोर्सी गाँव पहुँचे तो मालूम पड़ा आचार्य महाराज लगभग आधा घंटा पहले यहाँ से निकल गए हैं। 1. अनन्तानुबंधी, अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ के सर्वघाती स्पर्द्धकों का उदयाभावी क्षय तथा संज्वलन क्रोध, मान, माया, लोभ के देशघाती स्पर्द्धकों का उदय और आगामी काल में उदय आने योग्य सर्वघाती स्पर्द्धकों का सवस्था रूप उपशम होने पर संयमासंयम अर्थात् देश संयम उत्पन्न होता है । उपरोक्त युक्ति और आगम प्रमाणों के उपरांत संयमासंयम की मीमांसा में कुछ कहना शेष नहीं रह जाता है। मुझे आज कोई भी इस प्रकार का आगम कहीं भी पढ़ने को नहीं मिला जहां संयमासंयम को औदयिक सिद्ध किया गया हो, फिर क्यों इस संदर्भ में लोग हठाग्रह करते हैं। कहीं ऐसा तो नहीं कि कर्मोदय की तीव्रता के कारण स्वयं संयमी, देश संयमी (संयमासंयमी) बनने का पुरुषार्थ नहीं कर पा रहे हैं, इसलिए " अंगूर खट्टे हैं" इस कहावत को तो चरितार्थ नहीं कर रहे हैं। | मुनि श्री क्षमासागर जी निकल पड़े। आगे क्या होगा इसकी जरा भी चिंता नहीं है। यही तो निर्द्धन्द्ध साधना है । हम सभी आचार्य महाराज का अनुकरण करते हुए आगे बढ़ने लगे। गंतव्य दूर था। सामायिक से पहले पहुँचना संभव नहीं था, सो रास्ते में एक संतरे के बगीचे में सामायिक के लिए ठहर गए। सामायिक करके हम लोग लगभग ढाई-तीन बजे अपने गंतव्य पर पहुँचे । आचार्य महाराज के चरणों में प्रणाम किया। वे हमारी स्थिति से अवगत थे, सो अत्यन्त स्नेह से बोले - ' थक गए होंगे, थोड़ा विश्राम कर लो, अभी आहार चर्या के लिए सभी एक साथ उठेंगे।' हम समझ गए कि आचार्य महाराज स्वयं समय से आ जाने पर भी आहार चर्या के लिए हम सब के आने तक रुके रहे। उनके इस असीम वात्सल्य का हम पर गहरा प्रभाव हुआ, जो आज भी है। For Private & Personal Use Only 'आत्मान्वेषी' से साभार www.jainelibrary.org

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