Book Title: Jinabhashita 2004 09
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 13
________________ दशलक्षणपर्व और तत्त्वार्थसूत्र दशलक्षणपर्व प्रतिवर्ष हमें धर्म मार्ग में लगाने के लिये प्रेरित करने आता है । दशलक्षण धर्म आत्मा का स्वभाव है। इसके स्वरूप को समझकर व्यक्ति भावों की विशुद्धि प्राप्त करता है और अपना समय संयमाराधना में व्यतीत करता है। इन दिनों में सभी साधर्मीजन आरंभ आदि का त्याग कर संयम का पालन करते हुए इन्द्रिय विषयों से विरक्त रहते हैं । व्यक्ति जिस विषयासक्ति को वर्ष भर नहीं त्याग पाता उन्हें इन दिनों में सहजता से त्यागकर तन, मन, वचन को विशुद्ध बनाता है। ऐसी मानसिक विशुद्धि के समय किया गया आगम/सिद्धान्त ग्रन्थों का स्वाध्याय, विषय वस्तु को पूर्णरूप से गृहण कर अनुकरण का मार्ग प्रशस्त करता है। अतः मनीषियों ने दशलक्षणपर्व में तत्त्वार्थसूत्र नामक ग्रन्थ के स्वाध्याय की प्रेरणा दी, जिसका अनुसरण आज भी किया जा रहा है । दशलक्षणपर्व में तत्त्वार्थसूत्र का बहुत कुछ साम्य है। यह पर्व दश दिन का, दश इसमें धर्म हैं और तत्त्वार्थसूत्र में अध्याय भी दस हैं। अतः इन दिनों में एक धर्म के विवेचन के साथ एक अध्याय की विवेचना की जाती है। इन दिनों में व्यक्ति व्रत, संयम में संलग्न तो रहता ही है। पापों से विरक्त भी रहता है, जिससे उसके मन में आत्म कल्याण की भावना प्रबल हो जाती है । तत्त्वार्थसूत्र में जैनदर्शन को गागर में सागर की तरह समाहित किया गया है। इसमें मोक्षमार्ग और मोक्ष प्राप्ति का विस्तृत विवरण है। श्रद्धा, संयम और साधना से पवित्र मन, वचन और काय, आत्म हित की बात रुचिपूर्वक ग्रहण करते हैं । अतः इस तत्त्वार्थसूत्र का वाचन पर्व के दिनों में और भी आवश्यक हो जाता है। अन्य दिनों में तो हमें आत्म चिन्तन / आत्मकल्याण आदि को बिल्कुल समय ही नहीं मिलता है। सामान्य जन 365 दिन में मात्र दस दिनों में ही पूर्ण श्रद्धा के साथ विरक्त होकर धर्म कार्यों में लगता है। ऐसे समय में उसे सैद्धान्तिक ग्रन्थों का ज्ञान करना भी आवश्यक है। इसके लिये तत्त्वार्थसूत्र सम्पूर्ण ग्रन्थ है। इसमें लगभग सम्पूर्ण जैनागम के विषयों का प्रतिपादन किया गया है। अनेक ग्रन्थों के अध्ययन से जो ज्ञान प्राप्त होता है वह ज्ञान मात्र तत्त्वार्थसूत्र के अध्ययन से प्राप्त हो जाता है। इसमें सम्यग्दर्शन एवं उसकी प्राप्ति के कारण आदि के वर्णन के साथ सप्त तत्त्वों का विवेचन है। इसमें चारों अनुयोगों को भी समाहित किया गया है। जिसमें सम्यक् श्रुतज्ञान परमार्थ विषय का Jain Education International पं. सनतकुमार विनोदकुमार जैन कथन करने वाले त्रेसठशलाका पुरुष सम्बन्धि पुण्यवर्धक, बोधि और समाधि को देने वाली कथाएं हों, वह प्रथमानुयोग है। इसमें आचार्यों ने पुण्य पुरुषों के चरित्र का वर्णन कर पापकर्म एवं पुण्यकर्म के उदय में होने वाली जीव की दशा का वर्णन कर भव्य जीवों को पापों से भयभीत कर सद् कार्य करने की प्रेरणा दी है। महापुरुषों ने पूर्वभव में जो महान कार्य किये उनका अच्छा फल मिला। इस प्रकार पूर्वभवों का वर्णन कर पुण्य को महिमा मण्डित किया है, जिससे संसारी प्राणी सद्बोध को प्राप्त कर, धर्ममार्ग में लगे । तत्त्वार्थसूत्र में पुण्य-पाप के फल को दिखाया है। नारका नित्याशुभतरलेश्या परिणाम देह वेदना विक्रियाः 113 11 परस्परोदीरित दुःखाः ॥ 4 ॥ संक्लिष्टा सुरोदीरितदुःखाश्चप्राक्चतुर्थ्याः ॥ 5 ॥ अर्थात् - नारकी हमेशा ही अत्यन्त अशुभ लेश्या, अशुभ परिणाम, अशुभ शरीर, अशुभ वेदना और अशुभ विक्रिया के धारक होते हैं। नारकी जीव आपस में एक दूसरे को दुःख देते हैं और वे कुत्तों की तरह परस्पर आपस में लड़ते हैं और तीसरे नरक तक जाकर अम्बावरीष जाति के असुरकुमार देव उन्हें पूर्व वैर का स्मरण दिलाकर उन्हें आपस में लड़ाते हैं और प्रसन्न होते हैं। पापकर्म से नरक गति में होने वाले दुःखों का कथन पापों से भयभीत करता है। वहीं पुण्य से स्वर्ग के सुख, शुभ कार्यों में उत्साह उत्पन्न करते हैं । स्थितिप्रभावसुखद्युतिलेश्याविशुद्धीन्द्रियावधिविषयतोऽधिकाः 11 20 11 अर्थात् स्वर्गों में आयु, प्रभाव, सुख, द्युति, लेश्या की विशुद्धता, इन्द्रियों का विषय और अवधिज्ञान का विषय ये सब ऊपर ऊपर के विमानों (वैमानिक देवों) में अधिक अधिक हैं। पुण्य को दर्शाने वाला कथन, सुख, ज्ञान एवं शुक्ल ध्यान में कारण बनता है। पाप कर्म के कारणों का निराकरण कर पापों से बचने के लिए उनकी जानकारी जरूरी है । तत्त्वार्थसूत्र में पाप के कारणों का भी वर्णन किया है। - बह्वारम्भ परिग्रहत्वं नारकस्यायुषः ॥ 15 ॥ मायातैर्यग्योस्य ||16 ॥ अल्पारम्भ परिग्रहत्वं मानुषस्य ॥ 17 ॥ सरागसंयमसंयमासंयमाकामनिर्जराबालतपांसि दैवस्य ॥ 20 11 For Private & Personal Use Only सितम्बर 2004 जिनभाषित 11 www.jainelibrary.org

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