Book Title: Jinabhashita 2004 09
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 29
________________ कविवर भागचन्द रचित भजन प्रभूपै यह वरदान सुपाऊं, फिर जगकीच बीच नहीं आऊं ॥ टेक ॥ अर्थ - प्रभु! मैं आपसे यही वरदान पाना चाहता हूँ कि अब मैं इस जग कीच में, संसार में न आऊँ, अब मैं जन्म-मरण के दुःखों से मुक्त हो जाऊँ और संसार में मेरा फिर जन्म न हो । संकलन : पं. सुनील जैन शास्त्री अर्थ - जल, चन्दन, अक्षत, पुष्प नैवेद्य, दीप, धूप, फल इस प्रकार अष्ट द्रव्य लाकर सुन्दर स्वर्णपात्रों में सजाकर उनका अर्घ्य बनाकर, उनसे इसी भावना से पूजा करूँ कि अब इस संसार सागर में मेरा फिर जन्म न हो । जल गंधाक्षतपुष्प सुमोदक, दीप धूप फल सुन्दर ल्याऊं । आनंदजनक कनकभाजन धरि, अर्घ अनर्घ बनाय चढ़ाऊं ॥ 1 ॥ - अर्थ- मैं एकाग्र होकर आगम के अध्ययन में चित्त लगाऊँ, स्वाध्याय करूँ और संयम की चर्या को अपनाऊँ । संतजनों की संगति, उनका सान्निध्य छोड़कर एक क्षण के लिए भी अन्य की शरण में नहीं जाऊँ । Jain Education International आगमके अभ्यासमाहिं पुनि, चित एकाग्र सदैव लगाऊं । संतन की संगति तजिकै मैं, अंत कहूं इक छिन नहिं जाऊं ॥ 2 ॥ अर्थ - दोषपूर्ण वाद-विवाद में, मैं सदा शान्त रहूँ । श्रेष्ठ व पवित्र पुरुषों के गुणों का चिन्तवन करूँ, उनकी प्रशंसा, गुणगान करूँ । सदैव हित-मित व स्पष्ट वचन ही मुख से बोलूँ और राग-द्वेष रहित, वीतराग भावों में दृढ़ता व वृद्धि करूँ । दोषवादमें मौन रहूं फिर, पुण्यपुरुषगुन निशिदिन गाऊं । मिष्ट स्पष्ट सबहिसों भाषौं, वीतराग निज भाव बढ़ाऊं ॥ 3 ॥ अर्थ बाहर की ओर से दृष्टि हटाकर निज स्वरूप का, आत्म-स्वरूप का चिन्तन करूँ । कवि भागचन्द यह भावना करते हैं कि जब तक मुझे मोक्ष की प्राप्ति न हो तब तक आपके चरणकमल का ही स्मरण करूँ । बाजिदृष्टि ऐंचके अन्तर, परमानन्दस्वरूप लखाऊं 'भागचन्द' शिवप्राप्त न जौलौं, तों लौं तुम चरनांबुज ध्याऊं ॥ 4 ॥ 962, सेक्टर 7, आवास विकास कालोनी, आगरा (उ.प्र.) फोन - 0562-2277092 For Private & Personal Use Only सितम्बर 2004 जिनभाषित 27 www.jainelibrary.org

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