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साधु कभी किसी का बुरा नहीं चाहते
मुनि श्री सुधासागर जी
'साधु का हमेशा यह परिणाम रहता है कि किसी भी निमित्त से किसी के ऊपर कष्ट (उपसर्ग) नहीं आएँ।' जैसे एक माँ अपने बेटे को बचाती है, उसी तरह साधु-संतों की यह भावना रहती है कि सब जीवों का कल्याण हो, किसी का अहित नहीं हो, बल्कि सब सुखी बनने के रास्तों पर चलें। ऐसे ही दुर्जन व्यक्ति दूसरों को मिटाने के, सताने के और कष्ट पहुंचाने के बुरे से बुरे कार्य करने से बाज नहीं आते। धर्म और विज्ञान में यही तो भेद है कि जो सज्जन हैं वे खुद कष्ट सहकर भी दूसरे को सुखी बनाते हैं और जो दुर्जन हैं, वे किसी के सुख को देख नहीं पाते। इसीलिए ज्ञानियों ने फरमाया है कि सज्जन के पास बैठोगे तो सम्यग्ज्ञान मिलेगा
और संतों के नजदीक रहे तो साधु की तरह उपकारी बन जाओगे। जीवन का यदि कल्याण चाहते हो, तो साधु की तरह समता परिणामों को धारण करना सीखो सभी अपनी आत्मा मोक्षगामी बन सकेगी।
साधु के क्रोध में भी कल्याण के भाव निहित रहते हैं। जैसे एक माँ गलती. करने पर अपने बेटे को पीटती है, तो पुचकारती भी माँ ही है। एक दफामा यशाला ने अपने लाडले नटखट कन्हैया (श्री कृष्ण) को पड़ोसन की गलकी फोड़ने पर। खूब पीटा, किन्तु थोड़ी देर बाद ही माँ यशोदा खुद रोने लगी। कृष्ण यह देखकर
हैरान रह गये कि माँ ने पीटा और अब माँ ही रो रही है। यही तो रहस्य था, माँ बेटे के पावन रिश्ते का। इसे ही तो भारतीय संस्कृति ने माँ की करुणा कहा है। इसी तरह गुरु फटकार लगाते हैं और अपने भक्तों को अभव्य,पापी,दुराचारी,दुष्ट तक कह देते हैं, परन्तु ध्यान रखना, गुरु की फटकार में भी कल्याण के भाव हैं। जो गलत राह पर हैं, जीवन को पतन की तरफ धकेल रहे हैं, जिनवाणी माँ के ज्ञान की अवहेलना कर रहे हैं,उन नासमझों को सही मार्ग पर लाने के लिए ही गुरु कठोर शब्दों का उपयोग करते हैं । जो गुरु की फटकार को औषधि मान लें, वही तो फिर भव्य और धर्मात्मा बन पाएगा।
2 गुरु और भक्तों की भाषा ऐसी ही है, जो फटकारते भी हैं, तो राह भी वे ही दिखाते हैं । सच्चे गुरु कभी अपने भक्त का तो दूर, किसी पापी का भी अमंगल नहीं चाहते। गुरु की तो यही भावना रहती आई है कि पापी भी इस संसार की मोही दशा के बंधनों से मुक्त होकर सिद्ध, बुद्ध, निरंजन बनें। आज पतन इसलिए हो रहा है कि सुविधा भोगी साधु-संतों ने सत्य को सत्यता व साहस के साथ कहना छोड़ दिया है। आज हर व्यक्ति अपने अनुकूल सुनना चाहता है। प्रतिकूल बोलने पर तुरन्त अशांति उत्पन्न हो जाती है। प्रतिकूल को कोई सुनना ही नहीं चाहता परन्तु जब गुरु ही भक्तों की गलती पर चुप्पी और आँखें बंद कर लेंगे,फिर श्रमण संस्कृति की रक्षाव भक्तों का कल्याण कैसे हो पाएगा? धर्म की आधारशिला सत्य पर है और सत्य से ही जीवन का उत्थान, समाज का विकास, परिवार का कल्याण हो सकेगा।
दिगम्बर मुनिराज कभी किसी को अभिशाप नहीं देते, बल्कि वे तो समता के धारक हैं । मुनिराज की फटकार के पीछे भी दूसरे के कल्याण का भाव निहित है। इसीलिए कहा गया है कि गुरु की पिटाई को भी प्रसाद मानो। 'गुरु जी मारे धम्म-धम्म, शिक्षा आई छम छम्म। उन्होंने इस संदर्भ में 700 मुनियों के ऊपर आए उपसर्ग व श्रुतसागर जी महाराज के करुणामयी मार्मिक प्रसंग का वृतांत सुनाते हुए कहा कि भक्त और भगवान के झगड़े में भी आनंद होता है। क्योंकि उसमें भी प्रेम समाहित है। कभी भी मुनि विरोधी मत बनो, बल्कि मुनियों के प्रति श्रद्धावान् बनो, जिससे अपने जीवन की गलतियाँ सुधार करने का अवसर हासिल कर आत्मा का उत्थान कर सको। यदि हिंसा मिटानी है, तो अपने को अन्तर से हिंसा मिटानी होगी। महावीर इसीलिए महान् बने कि उन्होंने अपने अंतर की हिंसा पर विजय पाई।
'अमृत वाणी' से साभार
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