Book Title: Jinabhashita 2004 09
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 11
________________ मुनिदीक्षा 25 सितम्बर पर विशेष जैन संस्कृति के विकास में मुनि श्री सुधासागर जी का योगदान डॉ. नरेन्द्र जैन 'भारती' भारतवर्ष में समय-समय पर अनेक श्रमण संतों ने | सम्पूर्ण जनता उनके चरण कमलों में नतमस्तक होकर जन्म लेकर सम्पूर्ण मानव समाज का दिशा निर्देशन किया | स्वयं को गौरवान्वित महसूस करती है। उनके प्रवचनों से है। सत्य तथा अहिंसा का सम्यक् परिपालन करते हुए देह | लाखों लोग अब तक मद्य, माँस, मधु तथा नशावर्धक वस्तुओं को तप, साधना में लगाकर मोक्षमार्ग पर निरन्तर अग्रसर | का त्याग कर चुके हैं। परमपूज्य मुनिवर श्री सुधासागर जी रहे हैं। परमपूज्य मुनिपुंगव श्री सुधासागर जी महाराज वर्तमान | महाराज का श्रमण संस्कृति के प्रचार-प्रसार में महत्वपूर्ण में ऐसे ही महान तपस्वी, साधक संत तथा जिनवाणी के | योगदान है। प्रचार-प्रसार में सतत् जागरूक श्रमण संत हैं। जिनकी | मुनि श्री सुधासागर जी महाराज के प्रिय विषय हैंवाणी में अमृत, साधना में तप तथा आत्म नियन्त्रण में तीर्थ जीर्णोद्धार, तीर्थ सृजन, सत्साहित्य का अध्ययन और संयम की सर्वोच्च भावना का दर्शन मिलता है। प्रकाशन, शिक्षालयों का विकास, नैतिक शिक्षा को बढ़ावा परमपूज्य आचार्य रत्न श्री विद्यासागर जी महाराज से | तथा निःशक्त जनों को संबल देना। विरासत का संरक्षण मुनिदीक्षा ग्रहण कर उनके सम्यक् दिशा निर्देशों का पालन | करना आपका परम ध्येय है। प्राचीन तीर्थों का जीर्णोद्धार करते हुए पूज्य मुनिवर श्री सुधासागर जी महाराज ने अनेक | कर आपने युवा पीढ़ी को जोड़ने का महत्वपूर्ण कार्य किया अविस्मरणीय कार्य कर महान ख्याति तो अर्जित की है, | है। देवगढ़ तीर्थ का जीर्णोद्धार, अशोकनगर में त्रिकाल परन्तु श्रमण परम्परा के सच्चे मार्ग से कभी नहीं भटके, | चौबीसी का निर्माण, सांगानेर के संघी जी मन्दिर का कभी भी नियमित स्वाध्याय, सामायिक तथा मुनिचर्या को | जीर्णोद्धार, रैवासा के जैन मन्दिर को भव्य रूप प्रदान करना, नहीं छोड़ा न शिथिलता आने दी। मध्यप्रदेश के ईसुरवारा | शताधिक गौशालाओं की स्थापना, विकलांगों को कृत्रिम नामक स्थान पर जन्म लेकर पिता श्री रूपचंद जी तथा | अंग प्रदान करना तथा जगह-जगह सत्य, अहिंसा तथा माता श्रीमती शांति देवी के पवित्र आंगन को अपने जन्म से | सर्वोदयवाद के सिद्धांतों के प्रचार-प्रसार से श्रमण के विकास पूर्णता शुद्ध तथा पावन बनाकर घरवालों की प्रसन्नता को तो | में महत्वपूर्ण योगदान आपके जीवन की महत्वपूर्ण विशेषताएं आपने बढ़ाया ही, श्रमण मुनि दीक्षा धारण करने से पूर्व 10 | हैं। जनवरी 1980 को क्षुल्लक दीक्षा, 15 अप्रैल 1982 को | परमपूज्य मुनि श्री सुधासागर जी महाराज आत्म ऐलक दीक्षा के नियमों का पूर्णतया परिपालन कर आपने | कल्याण के लिए जिनवाणी का सम्यक् ज्ञान होना आवश्यक पूज्य आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज को यह विश्वास | मानते हैं। वे स्वयं तो जिनवाणी के प्रचार-प्रसार के लिए दिलाया कि आपमें श्रमण परम्परा के अनुरूप मुनि दीक्षा | समर्पित हैं ही, प्रत्येक वर्ष शताधिक विद्वानों को, समाज ग्रहण करने की पूर्ण योग्यता है। 25 सितम्बर 1983 को | को प्रेरित कर विचार-विमर्श पर बुलवाकर, किसी एक आपके लिए मुनि दीक्षा दी तथा सत्य, अहिंसा, अस्तेय, | धर्म ग्रन्थ के विभिन्न विषयों पर सम्यक् विचार-विमर्श कर अपरिग्रह, ब्रह्मचर्य, शाकाहार तथा सदाचार के प्रचार- | लोगों को गूढ़ से गूढ रहस्यों से परिचित कराने का सार्थक प्रसार हेतु सदैव तत्पर रहने का शुभाशीर्वाद प्रदान किया। | प्रयास भी करते हैं। प्रथम राष्ट्रीय विद्वत संगोष्ठी ललितपुर तब से आज तक पूज्य मुनिवर सुधासागर जी महाराज के | (उ.प्र.) में सल्लेखना पर, डॉ. रमेश चन्द जैन बिजनौर के पावन चरण जहाँ भी पड़ते हैं, वहाँ जंगल में मंगल हो | संयोजन में, मुनिवर के सान्निध्य में आयोजित की गई। जाता है। पूज्य मुनिवर सच्चे देव, शास्त्र एवं गुरु के प्रति | इसके उपरांत मदनगंज-किशनगढ़, जयपुर, मथुरा, सीकर, अपने जीवन को पूरी तरह से समर्पित कर तपस्या को | केकड़ी आदि अनेक स्थानों पर सैकड़ों विद्वानों की सहभागिता आत्म कल्याण हेतु श्रेष्ठ साधन बना चुके हैं। भारतवर्ष की | तथा समाज की उपस्थिति के मध्य तीन सत्रों में प्रतिदिन - सितम्बर 2004 जिनभाषित 9 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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