Book Title: Jinabhashita 2004 09
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 24
________________ प्रतिष्ठाशास्त्र और शासनदेव हमें अब तक के अन्वेषण से पता लगा है कि दिगम्बर सम्प्रदाय में जिन्होंने प्रतिष्ठाशास्त्रों का निर्माण किया है उनके नाम ये हैं- आशाधर, हस्तिमल्ल, इन्द्रनन्दि, वसुनन्दि, अर्यपार्य, वामदेव, ब्रह्मसूरि, नेमिचन्द्र और अकलंक। एकसन्धि और पूजासार के कर्ता तथा सोमसेन आदिकों के बनाये वर्णाचार व संहिताग्रन्थों में भी प्रतिष्ठासम्बन्धी कुछ प्रकरण पाये जाते हैं। इन सब में पं. आशाधरजी ही सबसे प्रथम हुए हैं अन्य सब उनके बाद के हैं। वसुनन्दिकृत संस्कृत प्रतिष्ठासारसंग्रह के विषय में धारणा थी कि यह आशाधर के पहिले का ग्रन्थ है। यह धारणा गलत । इस सम्बन्ध में हमारा एक लेख " वसुनन्दि और उनका प्रतिष्ठासारसंग्रह" शीर्षक से इसी ग्रन्थ में देखिये जिसमें इसे आशाधर के बाद का सिद्ध किया गया है। इन सब प्रतिष्ठाशास्त्रों में से सिर्फ आशाधरकृत और नेमिचन्द्रकृत दो प्रतिष्ठाशास्त्र ही मुद्रित हुए हैं । अन्य सब हाल भण्डारों की शोभा बढ़ा रहे हैं। जयसेनकृत प्रतिष्ठाशास्त्र जिसे वसुबिन्दुप्रतिष्ठापाठ भी कहते हैं यह भी मुद्रित हो चुका है, किन्तु इसे कुछ लोग आधुनिक और अप्रमाण मानते हैं, चूँकि इसके कई विषय ऊपर लिखित सभी प्रतिष्ठापाठों से मेल नहीं खाते हैं इसलिए हमने भी इसे प्रस्तुत चर्चा से अलग कर दिया है। आशाधरप्रतिष्ठाशास्त्र की रचना वि.सं. 1285 में और नेमिचन्द्र प्रतिष्ठाशास्त्र की 16वीं शताब्दी में हुई है। ये नेमिचन्द्र ब्रह्मसूरि के भानजे लगते थे और विद्वान श्रावक थे। इन्होंने अपने प्रतिष्ठाशास्त्र का बहुत सा विषय आशाधर के प्रतिष्ठाशास्त्र के आधार पर लिखा है । यह बात दोनों के तुलनात्मक अध्ययन से सहज ही प्रकट हो जाती है। अन्य प्रतिष्ठाशास्त्रों की जानकारी उनके प्रकाशित न होने से हमें न हो सकी है। तथापि हमारा अनुमान है कि उनमें भी बहुत करके आशाधर का ही अनुसरण किया गया होगा । हस्तलिखित वसुनन्दिकृत प्रतिष्ठासारसंग्रह हमारे देखने में आया है, उसमें बहुत कुछ आशाधर का अनुसरण ही नहीं किया है किन्तु कितने ही पद्य आशाधर के ज्यों के त्यों भी अपना लिये हैं। अब सवाल उठता है कि ये सब प्रतिष्ठाशास्त्र यदि आशाधर के बाद के हैं तो आशाधर ने अपना प्रतिष्ठाशास्त्र किस आधार पर रचा है? उनके पहिले का भी कोई प्रतिष्ठाग्रन्थ होना चाहिए। इस विषय में हमने जहाँ खोज की है, हम यह कह 22 सितम्बर 2004 जिनभाषित Jain Education International पं. मिलापचन्द कटारिया - सकते हैं कि 12 वीं सदी में होने वाले एक दूसरे वसुनन्दि जिन्होंने प्राकृत में 'उपासकाध्ययन" ग्रन्थ रचा है जिसका प्रचलित नाम " वसुनन्दिश्रावकाचार" है। इस श्रावकाचार प्रतिष्ठाविषयक एक प्रकरण है। इसमें करीब 60 गाथाओं में कारापक, इन्द्र, प्रतिमा, प्रतिष्ठाविधि और प्रतिष्ठाफल इन पाँच अधिकारों से प्रतिष्ठा सम्बन्धी वर्णन किया है। आकारशुद्धि, गुणारोपण, मन्त्रन्यास, तिलकदान, मुखवस्त्र और नेत्रोन्मीलन आदि कई मुख्य विषयों पर इसमें विवेचना की है। इसी को आधार बनाकर और शासनदेवोपासना आदि कुछ नई बातें मिलाकर पं. आशाधर जी ने अपना प्रतिष्ठाशास्त्र बनाया है । सागारधर्मामृत में भी आशाधर जी ने वसुनन्दिश्रावकाचार का बहुत कुछ उपयोग किया है। कुछ लोग समझते हैं कि संस्कृतप्रतिष्ठासारसंग्रह के कर्ता भी ये वसुनन्दि हैं? ऐसा समझना भूल है । इन्होंने अगर संस्कृत का प्रतिष्ठाग्रन्थ जुदा ही बनाया होता तो ये फिर यहाँ साठ गाथाओं में प्रतिष्ठा का दुबारा कथन क्यों करते ? - वसुनन्दिश्रावकाचार में आये प्रतिष्ठाविधि प्रकरण की एक खास विशेषता हमारी नजर में यह आई है कि इसमें किसी शासनदेव - देवी की उपासना का कहीं भी जिक्र नहीं है। यहाँ तक कि इसमें दिग्पाल आदिकों के नाम तक नहीं हैं। वसुनन्दि की इस प्रणाली का स्वयं आशाधर ने भी उल्लेख किया है । यथा जयाद्यष्टलान्येके कर्णिकावलयाद्बहिः । For Private & Personal Use Only मन्यन्ते वसुनंद्युक्त सूत्रज्ञैस्तदुपेक्षते ॥ 175 ॥ (प्रतिष्ठासारोद्धार अध्याय 1 ) अर्थ- कमल की कर्णिका के बाहर के आठ पत्तों पर जयादिदेवियों की जो कितने एक स्थापना मानते हैं। उसकी वसुनन्दिप्रणीतसूत्र के ज्ञाताजन उपेक्षा करते हैं। आगे हम पाठकों का ध्यान वसुनन्दि श्रावकाचार की प्रतिष्ठाविधि प्रकरण की निम्नगाथा पर ले जाते हैंआहरण वासियहिं सुभूसियंगो सगं सबुद्धीए । सक्कोहमिइ वियप्पिय विसेज जागावणिं इंदो ॥ 404 ॥ इसमें लिखा है कि- आभरण व सुगन्धि से भूषित हो, अपने आप को अपनी बुद्धि में 'मैं इन्द्र हूँ' ऐसा संकल्प www.jainelibrary.org

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