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करके वह इन्द्र यज्ञभूमि में प्रवेश करे।
नहीं सागारधर्मामृत में भी कई एक स्थलों का कथन बेढंगा इसी के अनुसार आशाधर ने अपने प्रतिष्ठाग्रन्थ में | हो गया है जिसका जिक्र पं. हीरालालजी शास्त्री ने वसुनन्दि इन्द्रप्रतिष्ठाविधि का वर्णन करते हुए मुख्य पूजक में सौधर्मेन्द्र | श्रावकाचार की प्रस्तावना में किया है। उन्हीं के शब्दों में की स्थापना करना लिखा है। वसुनन्दि और आशाधर दोनों पढ़ियेका कथन समान होते हुए भी, हमें आशाधर का कथन ___'सागारधर्मामृत के तीसरे अध्याय में प्रथमप्रतिमा का बेतुका जंचता है। वह इस तरह कि जब जिनयज्ञ के मुख्य | वर्णन करते हुए आशाधरजी ने उसमें जुआ आदि सप्तव्यसनों पूजक को सौधर्मेन्द्र मान लिया गया तो वह यागमंडल में | का परित्याग आवश्यक बतलाते हैं और व्यसनत्यागी के अपने से निम्न श्रेणी के देवों की स्थापना कर और 32 इन्द्रों | लिए उनके अतीचारों के परित्याग का भी उपदेश देते हैं, में अपनी खुद की स्थापना करके उनकी पूजा कैसे कर | जिसमें वे एक ओर तो वेश्याव्यसनत्यागी को गीत, नृत्यसकता है? इसलिए आशाधर का यागमंडल की रचना में | वादित्रादि के देखने-सुनने और वेश्या के यहाँ आने-जाने पंचपरमेष्ठी के अलावा दूसरे कई देव-देवियों की स्थापना | या सम्भाषण करने तक का प्रतिबन्ध लगाते हैं। तब दूसरी कर उनकी पूजा सौधर्मेन्द्र से कराना असङ्गत-सा प्रतीत | ओर वे ही इससे आगे चलकर चौथे अध्याय में दूसरी होता है और इन्द्रप्रतिष्ठा का विधान निरर्थक-सा होकर एक | प्रतिमा का वर्णन करते समय ब्रह्मचर्याणुव्रत के अतीचरों तरह का मखौल-सा हो जाता है। जबकि वसुनन्दि के | की व्याख्या में भाड़ा देकर नियतकाल के लिए वेश्या को कथन में ऐसी कोई आपत्ति ही खड़ी नहीं होती है। चूंकि | भी स्वकलत्र बनाकर उसे सेवन करने तक को अतीचारों उन्होंने प्रतिष्ठाविधि में कहीं शासनदेव पूजा को स्थान ही बताकर प्रकारान्तर से उसके सेवन की छूट दे देते नहीं दिया है।
हैं।............. ये और इसी प्रकार के अन्य कुछ कथन पं. भगवान् के पूजक को इन्द्र का स्थानापत्र बताया आशाधरजी द्वारा किये गये हैं, वे आज भी विद्वानों के लिए जाना ही यह सिद्ध करता है कि पूज्य का स्थान इन्द्र से भी रहस्य बने हुए हैं और इन्हीं कारणों से कितने ही लोग ऊँचा होना चाहिए। और वे अर्हतादि ही हो सकते हैं। न | उनके ग्रन्थों के पठन-पाठन का विरोध करते रहे हैं।' कि व्यन्तरादि शासनदेव, जो इन्द्र से भी निम्नश्रेणी के हैं। जो लोग बड़े दर्प के साथ यह कहते हैं कि ऐसा कोई
पं. आशाधरजी के बनाये ग्रन्थों का बारीकी से अध्ययन | भी प्रतिष्ठा शास्त्र नहीं है जिसमें शासनदेव पूजा न लिखी करनेवालों को पता लगेगा कि उनके खासकर श्रावकाचार | हो, उन्हें अब मालूम होना चाहिए कि वसुनन्दि का साहित्य पर श्वेताम्बर साहित्य का प्रभाव पड़ा नजर आता प्रतिष्ठाप्रकरण जो उपलब्ध प्रतिष्ठा साहित्य में सबसे पहिले है। इसके लिए हम पाठकों को श्वेताम्बराचार्य श्री हेमचन्द्रकत का है उसमें कतई शासनदेवों का कोई उल्लेख ही नहीं है। योगशास्त्र स्वोपज्ञटीका को सागारधर्मामृत के सामने रखकर जिन प्रतिष्ठाशास्त्रों के ये लोग प्रमाण देते हैं वे तो सब देखने का अनुरोध करते हैं। तब उन्हें पता लगेगा कि | आशाधर के बाद के बने हुए हैं और उनके कर्ताओं ने प्रायः सागारधर्मामृत के कई एक स्थानों पर योगशास्त्र की साफ | | आशाधर का ही अनुसरण किया है। और आशाधर ने अपना तौर पर छाया पड़ी हुई है। लेख विस्तार के भय से यहाँ हम | प्रतिष्ठाशास्त्र नयी शैली से लिखा है जैसा कि ऊपर हम बता उनके उद्धरण पेश करना नहीं चाहते हैं। इसी तरह आशाधर | आये हैं। अर्थात् वसुनन्दि के प्रतिष्ठा सम्बन्धी मुख्य विधिने जो अपने प्रतिष्ठाग्रन्थ में कई देव-देवियों की भरमार की | विधानों को लेकर और उनके साथविचित्र रूपधारी देवहै और उनका विचित्र स्वरूप चित्रण किया है वह सब भी | देवियों की पूजा रचकर आडम्बर पूर्ण प्रतिष्ठाग्रन्थ आशाधर सम्भवतः उधार लिया गया प्रतीत होता है। ये देवी-देव ने रचा है। इस रचना को आशाधर ने युगानुरूप रचना प्रायः श्वेताम्बर पूजा-पाठों में भी उसी तरह पाये जाते हैं | बतायी है। इससे साफ प्रकट होता है कि शासनदेव की जैसे कि आशाधर ने लिखे हैं। आशाधर ने अपना प्रतिष्ठाशास्त्र | रीति प्रतिष्ठाविधि में प्रधानतया आशाधर की चलाई हुई है नयी पद्धति से रचा है ऐसा वे खुद उनकी प्रतिष्ठा में लिखते | और इसलिये यह रीति इनके पूर्व होनेवाले वसुनन्दि के हैं 'ग्रन्थः कृतस्तेन युगानुरूपः' अर्थात् उन आशाधर ने यह | प्रतिष्ठाप्रकरण में नहीं पायी जाती है। अत: बेखटके कहा प्रतिष्ठाग्रन्थ वर्तमानयुग के अनुरूप बनाया है।
जा सकता है कि आशाधर के पहिले का ऐसा कोई पुरानी कथनी के साथ भिन्न आम्नाय की नयी बातों | प्रतिष्ठाशास्त्र हो तो बताया जावे जिसमें शासनदेव की पूजा को मिश्रण करने से आशाधर के बनाये प्रतिष्ठाशास्त्र में ही | लिखी हो।
'जैन निबन्धरलावली' से साभार सितम्बर 2004 जिनभाषित 23
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