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सम्यक्त्वं च ॥21॥
पाँच पापों का बुद्धिपूर्वक त्याग करना व्रत है। अणुव्रत और अर्थात् - बहुत आरंभ और बहुत परिग्रह नरक आयु के
महाव्रत, व्रतों के दो भेद हैं। इन व्रतों की स्थिरता (रक्षा) आस्रव के कारण हैं। मायाचार तिर्यंञ्च आयु के आस्रव का | के लिये प्रत्येक व्रत की पाँच-पाँच भावनायें होती हैं । व्रतों कारण है। थोड़ा आरंभ और थोड़ा परिग्रह मनुष्य आयु के | की विशुद्धि के लिए अतिचारों से बचने के लिए प्रत्येक आस्रव का कारण है। सराग संयम, संयमासंयम, अकाम
व्रत के पाँच पाँच अतिचार बताये हैं। इन सूत्रों के अध्ययन निर्जरा और बाल तप एवं सम्यग्दर्शन देव आयु के आस्रव
से श्रद्धान की दृढ़ता एवं व्रताचरण की प्रेरणा मिलती है। के कारण हैं। इन सूत्रों के अध्ययन से अशुभ से विरक्ति । जिससे सुगति एवं मुक्ति मिलती है। इसी प्रकार द्रव्यानुयोग और शुभ में प्रवृत्ति होती है।
का विशद वर्णन तत्त्वार्थसूत्र में मिलता है। ___करणानुयोग में लोकविभाग, युगपरिवर्तन एवं चारों जिसमें जीव, अजीव आदि प्रमुख तत्त्वों को पुण्य, गतियों का वर्णन किया जाता है। तत्त्वार्थसूत्र में इन सब का पाप, बन्ध, मोक्ष, आस्रव, संवर और निर्जरा का कथन वर्णन किया गया है :
किया जाता है वह द्रव्यानुयोग कहलाता है। पूरा तत्त्वार्थसूत्र रत्लशर्कराबालुकापंकधूमतमोमहातमः प्रभा भूमयो
इसी विषय वस्तु का कथन करने वाला है। कुछ सूत्र दृष्टव्य घनाम्बुवाताकाशप्रतिष्ठा सप्ताधोऽधः ॥1॥ जम्बूद्वीप लवणोदादयः शुभनामानो द्वीप समुद्राः ॥7॥ उत्तरादक्षिणतुल्याः ॥26॥
उपयोगो लक्षणम् ॥8॥ आरणाच्युता दूर्ध्वमेकैकेन नवसुप्रैवेयकेषुविजयादिषु
स द्विविधोऽष्ट चतुर्भेदः॥१॥ सर्वार्थसिद्धौ च ।। 32॥
संसारिणो मुक्ताश्च ॥10॥ • भरतैरावतयोवृद्धिहासौषट् समयाभ्यामुत्सर्पिण्यव
सद्व्य लक्षणम् ॥29॥
उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सतू ॥30॥ सर्पिणीभ्याम् ॥27॥
नित्यावस्थितान्यरूपाणि ॥4॥ अर्थात् - अधोलोक में रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा,
कायवाङ्मनः कर्मयोगः ॥1॥स आस्रवः॥2॥ बालुकाप्रभा, पंकप्रभा, धूमप्रभा, तमप्रभा और महातमः प्रभा सकषायत्वाजीवः कर्मणोयोग्यान पुदगलानादत्ते स बन्धः ये सात भूमियां क्रम से नीचे नीचे हैं। और घनोदधि वातवलय, ॥2॥ घनवातवलय, तनुवातवलय और आकाश के आधार हैं। अर्थात् - जीव का लक्षण उपयोग है। वह दो प्रकार मध्यलोक में अच्छे-अच्छे नाम वाले जम्बू द्वीप आदि द्वीप | का, आठ और चार भेद वाला है। संसारी और मुक्त की और लवण समुद्र आदि समुद्र हैं। जम्बूद्वीप की रचना उत्तर अपेक्षा जीव दो प्रकार के हैं। द्रव्य का लक्षण सत् है। जो और दक्षिण की समान है। उर्ध्व लोक में सोलह स्वर्ग हैं, उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य सहित होता है वह सत् है। द्रव्य स्वर्गों से ऊपर नवग्रैवेयक, नवअनुदिश, पाँच अनुत्तर विमान नित्य, अवस्थित और अरूपी है काय, वचन और मन की हैं। युग परिवर्तन, भरतक्षेत्र और ऐरावत क्षेत्र में होता है। क्रिया को योग कहते हैं, वह योग ही आस्रव है। जीव छह कालों से युक्त उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी के द्वारा कषायवान होने से कर्म के योग्य कार्माण वर्गणा रूप पुद्गल भरतक्षेत्र और ऐरावतक्षेत्र में वृद्धि और ह्रास होता है। | स्कन्धों को ग्रहण करता है, वह बन्ध कहलाता है। करणानुयोग के इन सूत्रों के अध्ययन से आगम ज्ञान बढ़ता आस्रव निरोधः संवरः । है जिससे श्रद्धा दृढ़ होती है।
स गुप्तिसमितिधर्मानुप्रेक्षापरिषहजय चारित्रैः ।। 2॥ जिसमें गृहस्थ और मुनियों के चारित्र का स्वरूप,
तपसा निर्जरा च ॥3॥ उत्पत्ति, वृद्धि और रक्षा के कारणों का वर्णन किया जाता है अर्थात् - आस्रव का रुकना संवर है। वह संवर गुप्ति, वह चरणानुयोग कहलाता है। तत्त्वार्थसूत्र में चरणानुयोग
समिति, दशधर्म, बारहअनुप्रेक्षा, बाइस परीषहजय और चारित्र का विस्तृत वर्णन मिलता है :
से होता है। तप से निर्जरा होती है। द्रव्यानुयोग की दृष्टि से हिंसानृत-स्तेयाब्रह्म परिग्रहेभ्यो विरतिव्रतम्॥1॥ तत्त्वार्थसूत्र पूर्ण समृद्ध है। इसमें सात तत्व, छह द्रव्य, पाप, देश सर्वतोऽणु महती॥2॥
पुण्य आदि की सूक्ष्मता से चर्चा भी की गई है। न्याय के तत्स्थैर्यार्थ भावना पञ्चपञ्च॥3॥
बिना आध्यात्म अधूरा रहता है। न्याय का विषय तत्त्वनिर्णय निःशल्योव्रती ॥18॥
में अहम् भूमिका निभाता है। तत्त्वार्थसूत्र के कुछ सूत्र न्याय व्रतशीलेषु पञ्च पञ्च यथाक्रमम्॥24॥
विवेचन में महत्वपूर्ण हैं। अर्थात् - हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह इन ।
प्रमाण नयैरिधगमः ॥6॥
12 सितम्बर 2004 जिनभाषित Jain Education International
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