Book Title: Jinabhashita 2004 09
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

View full book text
Previous | Next

Page 15
________________ मतिश्रुतावधि मनः पर्यय केवलानिज्ञानम्॥9॥ निर्जरा के द्वारा ज्ञानावरण आदि समस्त कर्मों का अत्यन्त तत् प्रमाणे ॥10॥ आद्ये परोक्षम्॥11॥ प्रत्यक्षमन्यत् अभाव होना मोक्ष है। इन सूत्रों में आध्यात्म की चर्चा है ॥12॥ जिनके चिन्तन से कर्म निर्जरा होती है। अनेकान्त और नैगम संग्रह व्यवहारर्जु सूत्र शब्द समभिरूद्वैवंभूतानयाः स्याद्वादसिद्धान्त जो जैन आगम का प्राण कहा जाता है। ।। 33॥ अर्थात् - तत्त्वों का ज्ञान प्रमाण और नयों से होता है। । | इसके बिना जैन सिद्धान्त अधूरा रहता है इसका वर्णन भी सूत्र जी में किया हैमति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय और केवलज्ञान ये पाँच तत्त्व अर्पितानर्पित सिद्धेः ॥32॥ ज्ञान के प्रमाण हैं। यह दो रूप हैं। आदि के दो ज्ञान परोक्ष प्रमाण, शेष तीन ज्ञान प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। नैगम, संग्रह, व्यवहार, __ अर्थात् - मुख्यता तथा गौणता से अनेक धर्म वाली वस्तु का कथन किया जाता है। इस सूत्र में अनेकान्त ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत ये सात नय हैं। इन स्याद्वाद सिद्धान्त का वर्णन कर श्री उमा स्वामी जी महाराज सूत्रों के अध्ययन से तत्त्व के स्वरूप का निर्णय होता है। जो मोक्षमार्ग में साधक है। आत्म चिन्तन रूप आध्यात्म की ने इस ग्रन्थ को पूर्णता प्रदान की है। ऐसे महान ग्रन्थ के स्वाध्याय से सम्पूर्ण जैन आगम का संक्षिप्त स्वाध्याय हो चर्चा भी तत्त्वार्थसूत्र में की गई है। जाता है। वर्तमान में अज्ञानता, व्यस्तता और समयाभाव के औपशमिकक्षायिकौ भावौ मिश्रश्च जीवस्य स्व तत्त्व कारण व्यक्ति बड़े-बड़े ग्रन्थों का अध्ययन नहीं कर पाते मौदयिक पारिणामिकौ च ॥1॥ उनको तत्त्वार्थसूत्र बहुत उपयोगी है। दशलक्षण पर्व में ही अविग्रहा जीवस्य ॥27॥ अप्रतीघाते ॥ 40॥ अनादिसम्बन्धे च ॥41॥ समय मिलता है जब व्यक्ति पापाचरण का त्याग करता है। आर्त्तरौद्रधर्म्यशुक्लानि ।। 28॥ यह समय तत्त्वार्थसूत्र के अध्ययन के लिए उपयुक्त है। बन्धहेत्वभाव निर्जराभ्यां कृत्स्नकर्मविप्रमोक्षो मोक्षः | किन्तु कुछ वर्षों से देखा जा रहा है कि पूजन-भजन-नृत्य॥2॥ आरती में तो हम पूरा समय देते हैं, किन्तु तत्त्वार्थसूत्र वाचन अर्थात् - जीव के औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक | के समय अंगुलियों पर गिनने योग्य व्यक्ति ही रहते हैं। इन औदयिक और पारिणामिक ये पाँच निज भाव हैं। मुक्त | दिनों मन विशुद्ध रहता है, पाप से विरक्ति रहती है ऐसे में जीव की गति मोड़ारहित सीधी होती है। तैजस और कार्मण | मन लगाकर तत्त्वार्थसूत्र का स्वाध्याय करने से जैनागम को ये दोनों शरीर बाधारहित हैं। इनका आत्मा के साथ | समझने की ललक जगेगी। अत: दशलक्षण पर्व में सूत्र जी अनादिकाल से संबंध है। बन्ध के कारणों का अभाव तथा | का वाचन बहुत ही महत्वपूर्ण है। रजवाँस, सागर (म.प्र.) मुक्तक योगेन्द्र दिवाकर कहीं प्रकाशित कविता होती, कहीं शब्द लगता है मोती। कहीं प्रकाशित मन होता है, कहीं आत्मा गद्गद् होती। कहीं किसी को भाती नारी, कहीं कोई प्रतिमाधारी, किन्तु जो शिवपथ पर रहता, वह सम्यक् है आत्म पुजारी सतना, म.प्र. सितम्बर 2004 जिनभाषित 13 www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only

Loading...

Page Navigation
1 ... 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36