Book Title: Jinabhashita 2004 01 Author(s): Ratanchand Jain Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra View full book textPage 4
________________ आपके पत्र, धन्यवाद : सुझाव शिरोधार्य 'जिनभाषित' (दिसम्बर०३) मेरे समक्ष है। डॉ. शीतलचन्द्र 'जिनभाषित' अंक १० (नवम्बर २००३) मिला। कवर जी द्वारा लिखित सम्पादकीय सामयिक-सटीक लगी। जैन न्याय- पृष्ठ पर भगवान आदिनाथ (सर्वोदय तीर्थ अमरकंटक) का दर्शन ग्रन्थों के प्रकाशन की समस्या दिन-प्रतिदिन बढ़ती ही जा | नयनाभिराम चित्र देखकर मन प्रमुदित हुआ तथा सिर श्रद्धा से रही है। हमें तो बड़ा आश्चर्य होता है कि एक-एक चातुर्मास में | झुक गया। सम्पादकीय - 'सदलगा सदा ही अलग' ने उक्त पावन प्रदर्शन, शोर सराबे, मल्टी कलरर्ड पत्रिकाओं, स्मारिकाओं के गांव की सजीव झांकी ही प्रस्तुत कर दी। पूज्य आर्यिकारत्न नाम पर एक -एक स्थल पर करोड़ों रुपये समाज द्वारा ही पानी आदर्शमती माताजी का जहाँ भी चातुर्मास होता है वहाँ जंगल में की तरह बहा दिये जाते हैं। यह सब साधु समाज के मार्गदर्शन में | मंगल' हो जाता है। ही होता है। 'घोषित दान की अनुपलब्धि' लेख में ब्र. शान्ति कुमार क्या हम इस प्रकार का कदम नहीं उठा सकते कि प्रत्येक जैन के 'दान राशि' के सम्बन्ध में विचार पढ़े। निःसन्देह यह चातुर्मास की अमिट यादगार अथवा पंचकल्याणक महोत्सव अथवा शाश्वत सत्य है कि दान राशि घोषित कर देने के बाद एक क्षण के विधान समारोह की यादगार में एक आर्ष प्रणीत दुर्लभ ग्रन्थ का लिए भी उस राशि पर गृहस्थ (श्रावक) का अधिकार नहीं रह जाता। परन्तु कई जगह देखा जाता है कि दान देते समय व्यक्ति प्रकाशन करें। यदि साधु संघों का ध्यान इस ओर जाता है तो यथाशक्ति दान देता है, परन्तु उस दान राशि का सही सदुपयोग निश्चित प्रतिवर्ष अनेक ग्रन्थों का प्रकाशन हो सकता है। नहीं होता वरन् कुछ व्यक्ति उसे मनमाने ढंग से उपयोग में लाने सभी को ज्ञात है कि आचार्य श्री १०८ विमलसागर जी लगते हैं। हमें एक वाकया याद है। एक आचार्य के सानिध्य में महाराज की ७५ वीं जन्म जयन्ती पर ७५ ग्रन्थों का अनूठा प्रकाशन एक मण्डल विधान का भव्य आयोजन हुआ। जिसमें हर काम की । उपाध्याय भरत सागर जी महाराज की पावन प्रेरणा से किया गया अच्छी बोली लगी। उसी बोली की राशि में से लगभग ८१.००० था, जो कि अद्वितीय ऐतिहासिक उपलब्धि के रूप में आज भी रु. की राशि विधि-विधान कराने वाले पंडित जी ले गये। इसके विद्वानों के मानस पटल पर अंकित है। बावजूद जन चर्चा रही कि लगभग एक लाख बचना चाहिए, जैन न्याय के मूर्धन्य विद्वान डॉ. दरबारी लाल जी कोठिया । परन्तु मुख्य कर्ता-धर्ता लोगों ने न हिसाब रखा न हिसाब देते हैं। के साथ मिलकर अष्टसहस्री का सम्पादन किया एवं ग्रन्थ का ऐसी स्थिति आज अनेक स्थानों पर है कि समाज के नाम पर प्रकाशन जैन विद्या संस्थान श्री महावीर जी से हुआ। सीमित | आयोजन करो. धन अपनी अंटी में करो और भगवान तथा मनियों संसाधनों के रहते हुए भी अनेकान्त ज्ञान मंदिर शोध संस्थान बीना | की जय बोलो। यदि ऐसा नहीं है तो फिर धार्मिक संस्थायें प्रचार (सागर) म.प्र. द्वारा प्रमाण निर्णय-आ. वादिराज जी, | के नाम पर लाखों रुपये पानी की तरह कैसे बहा रहीं हैं ?' दैनिक आप्तमीमांसावृत्ति- आ. वसुनंदी जी, परीक्षामुख-आ. माणिक्यनंदी | भास्कर' जैसे अखवारों में पूरे पेज के विज्ञापनों हेतु पैसा कहाँ से प्रकाशन किया जा चुका है। संस्थान इस दिशा में निरंतर प्रयासरत | | आ रहा है। मेरा यह कहना नहीं है कि दान की राशि न दी जाये, दान की राशि अविलम्ब देना चाहिए। 'जिनभाषित' की सामग्री उन्नत , मुद्रण, साज-सज्जा सभी श्रमणाचार में एकल विहार का निषेध लेखक डॉ. श्रेयांस अच्छी है। पत्रिका निरन्तर प्रगति पथ पर बढ़ती रहे। जैन बड़ौत का लेख समसामयिक तथा दिशा निर्देश देता है। बालवार्ता 'सबसे बड़ा कांटा' डॉ. सुरेन्द्र 'भारती' तथा 'रेलवे ब्र. संदीप'सरल' टाइम टेबल में जैन संस्कृति' द्वारा डॉ. कपूर चंद जैन एवं डॉ. बीना (सागर) ज्योति जैन ने महत्वपूर्ण जानकारी दी है। आदरणीय पं. रतनलाल बैनाड़ा के 'जिज्ञासा-समाधान' तो पत्रिका की रीढ़ हैं। वस्तुतः संशोधन जैन गजट में जबसे शंका-समाधान स्तम्भ बंद हुआ है, तब से इस "जिनभाषित' के दिसम्बर 2003 अंक में पृष्ठ 28 पत्रिका ने जिज्ञासा-समाधान प्रस्तुत कर एक बड़ी कमी को पूरा 'बुन्देलखण्ड के जैनतीर्थ' ग्रन्थ समीक्षा में लेखक का नाम श्री किया है। विज्ञापनों के बिना तथा व्यावसायीकरण की प्रवृत्ति से | कैलाश मड़बैया छप गया है। दर असल समीक्षा के लेखक परे रखकर आपके सुयोग्य मार्गदर्शन में यह पत्रिका निष्पक्ष रहकर समीक्षाकार श्री 'विकल' भोपाल हैं। दिशा निर्देशन का कार्य करती रहे, भविष्य में भी यह अपेक्षा रहेगी। डॉ. नरेन्द्र कुमार जैन सम्पादक वरिष्ठ सम्पादक-पार्श्व ज्योति, सनावद (म.प्र.) 2 जनवरी 2003 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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