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दिनांक २५ दिसम्बर २००३ को कोलकाता में भारतवर्षीय । औचित्यपूर्ण उपाय सुझाये हैं। वर्तमान में कुछ जैन साधु ऐसे हैं, दि. जैन (धर्म संरक्षिणी) महासभा की पश्चिम बंगाल शाखा के जो मन्त्रतन्त्र का चमत्कार दिखलाकर अपने भक्तों की संख्या द्वारा भारत के प्रसिद्ध विद्वान् प्राचार्य नरेन्द्रप्रकाश जी जैन का भव्य बढ़ाने की कोशिश करते हैं। प्राचार्य जी ने इसे मुनिधर्म के विरुद्ध अभिनन्दन किया गया । यह एक यथार्थतः अभिनन्दनीय पुरुष का बतलाया है। बहुत से श्रावक शासन देवी-देवताओं की तीर्थंकरों अभिनन्दन था । के समान पूजा करते हैं और कुछ मुनिजन इसकी प्रेरणा देते हैं। प्राचार्य जी ने इसे मिथ्यात्व निरूपित करते हुए शासनदेवताओं को केवल साधर्मी बन्धुओं के समान सम्मान देने को ही उचित कहा है।
प्राचार्य श्री नरेन्द्रप्रकाश जी जैन वह नाम है, जो विगत अर्धशताब्दी से प्रभावशाली वक्तृत्व- शैली, मार्मिक लेखन और अगाध विद्वत्ता का पर्याय बना हुआ है।
अभिनन्दनीय का अभिनन्दन
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व्यवसाय की दृष्टि से वे शिक्षक रह चुके हैं। उनकी शिक्षणकला किस कोटि की रही होगी, इसका परिचय उनकी ज्ञानगम्भीर, तर्कणापूर्ण, हृदयग्राही, काव्यात्मक वाग्मिता दे देती है। जैन विद्वानों की प्राचीन संस्था अखिल भारतीय शास्त्रिपरिषद् ने एक दशक से अपनी बागडोर उनके हाथों में सौंप रखी है, जिससे लोगों को उनके नेतृत्व- नैपुण्य का सुखद साक्षात्कार हो रहा है। और जैनगजट' जैसे प्राचीन और प्रतिष्ठित पत्र के सम्पादकत्व ने उनकी जैन धर्म और दर्शन की गहन समझ तथा धार्मिक-सामाजिक समस्याओं के समाधान की दिशा में कुशल मार्गदर्शन करने की अद्भुत प्रज्ञा का उद्घाटन किया है।
'नग्नमुनि एवं भट्टारक' लेख में अतिशय क्षेत्र लूणवाँ में घटित घटना का प्रसंग उपस्थित करते हुए प्राचार्य जी लिखते हैं, 'किसी नग्नमुनि का भट्टारक बनना ऐसे ही है, जैसे किसी गृहत्यागी विरक्त (अनगार) का फिर से संसार में प्रवेश करना' (समय के शिलालेख, पृष्ठ ११० ) । मेरा ख्याल है कि दिगम्बर जैन मुनि के समान पिच्छी - कमण्डलु ग्रहण करते हुए अजैन साधुओं के समान गेरुए वस्त्र धारण करने वाले भट्टारकों के विषय में भी प्राचार्य जी की यही मान्यता होगी। तेरापन्थ और बीसपन्थ के विवाद की जिनशासन और जैन समाज के लिए अहितकर मानते हुए प्राचार्य श्री नरेन्द्र प्रकाश जी अपना मत निवेदित करते हैं- 'तेरापन्थ और बीसपन्थ ये काल्पनिक नाम हैं। हमारे पूर्वाचार्यों ने आगम ग्रन्थों में कहीं इन शब्दों का प्रयोग नहीं किया' (समय के शिलालेख, पृष्ठ १०६) । हम स्वयं व्यक्तिरूप से तेरापन्थ को पसन्द करते हैं, फिर भी बीसपन्थ से हमें कोई एलर्जी नहीं है' (वही, पृष्ठ १०९) ।
प्राचार्य जी के प्रवचन और व्याख्यान जितने उद्बोधक होते हैं, उतनी ही प्रतिबोधकता उनके सम्पादकीय लेखों एवं शोध आलेखों में विद्यमान होती है। 'जैन गजट' में लिखे गये उनके सम्पादकीय लेखों और संगोष्ठियों में पठित शोधनिबन्धों के दो संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं, जिनके नाम हैं : 'चिन्तन प्रवाह' और 'समय के शिलालेख।' इनमें संगृहीत आलेखों में प्राचार्य जी ने जैन धर्म और समाज से सम्बन्धित बहुमुखी विषयों का विवेचन किया है। किन्तु उनमें सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण हैं वे आलेख जिनमें उन्होंने पन्थ, जाति, शासन देवी-देवता, भट्टारक- परम्परा, निश्चयाभास, शिथिलाचार आदि वर्तमान में विवाद के हेतु बने हुए विषयों का तर्कसंगत विश्लेषण करते हुए उनके समाधान हेतु
प्राचार्य जी के ये विचार मुझे जिनशासन के अनवरत प्रवर्तन तथा जैन समाज की एकता को अक्षुण्ण रखने के लिए अत्यन्त युक्तियुक्त प्रतीत होते हैं । मेरी मंगल कामना है कि स्वनामधन्य प्राचार्य श्री नरेन्द्रप्रकाश जी 'जीवेत् शरदः शतम, ' ताकि शास्त्री परिषद् उनके नेतृत्व से, 'जैन गजट' उनके सम्पादकत्व से तथा जैन समाज उनके प्रबोधक उपदेश एवं मार्गदर्शन से आकाश की और अधिक ऊँचाइयों का स्पर्श करने में समर्थ हो ।
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मुक्तक
विष भी अमृत का पान बन सकता है, रोदन भी मधुरिम गान बन सकता है। साहस के साथ अगर करे सामना तो, अभिशाप भी वरदान बन सकता है ।
जनवरी 2003 जिनभाषित
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रतनचन्द्र जैन, 'जिनभाषित' - सम्पादक
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योगेन्द्र दिवाकर
अवसर का चित्र खींचो, अवसरवादी मत बनो, गुलामी की भावना के आदी मत बनो । प्रभुत्व और नेतृत्व सब किस्मत की कृपायें हैं, इनको पाकर कभी भी उन्मादी मत बनो ।
पुष्पराज कॉलोनी, प्रथम पंक्ति सतना (म.प्र.) 485001
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