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सम्यक् चारित्र की पुष्टि हेतु कृत, कारित, अनुमोदना का जो महत्त्वपूर्ण योगदान है उसे दर्शाते हुए बतलाया गया है कि उस ९ अंक में ३६३ मतों का समावेश है। एक अंक के मिलाने पर प्राप्त १० अंक से ऋग्वेद की उत्पत्ति हुई है। इसी को पूर्वानुपूर्वी अर्थात् पश्चात् आनुपूर्वी कहते हैं। ऋग्वेद 'द्वादशांगी-जिन-आगम' वृक्ष की एक शाखा रूप 'उत्पन्न' है। 'ऋक्' अर्थात् शाखा है। ऋग्वेद भी शाखा है। वह ऋग्वेद तीन प्रकार का दर्शाया गया है। मानव ऋग्वेद, देव ऋग्वेद, और दनुज / दानव ऋग्वेद । 'इनमें सिर्फ मानव ऋग्वेद ही मानवों के हेतु है जिसमें गौरक्षा, पशुओं की रक्षा और ब्रह्मों/आत्मलीनों (ब्राह्मणों) की रक्षा तथा जिन धर्म की समानता सिद्धि की अपेक्षा है | जिनधर्म आत्मधर्म होने से हर जीव का धर्म है इसीलिए वह अहिंसा धर्म है। जिनधर्म के अंदर हर जीव की रक्षा निहित है।'
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भाषाओं के बारे में भूवलय ग्रंथ से यही जानकारी मिलती है कि प्राचीन काल से ही जिन अठारह महाभाषाओं और ७०० उपभाषाओं का वर्णन हम सुनते जानते आए हैं वे इसी भूवलय के चक्रबंधों (बंध/रचना) में समाहित हैं जिन्हें आचार्य कुमुदेन्दु ने ५९ अध्यायों और १२५२ बारह सौ बावन चक्रबंधों में प्रस्तुत किया है। इन चक्रबंधों को पढ़ने की अलग-अलग विधियाँ हैं जिनके आधार पर उनको नाम दिए गए हैं- यथा चक्रबंध, हंसबंध, शुद्धाक्षर बंध, शुद्धांक बंध, अक्षबंध, अपुनुरूक्ताक्षर बंध, पद्मबंध, शुद्धनवमांक बंध, वरपद्मबंध, महापद्मबंध, द्वीवबंध, सागर बंध, उत्कृष्ट पल्यबंध, अम्बुबंध, शलाकाबंध, श्रेण्यक बंध, लोक बंध, रोमकूपबंध, क्रौंचबंध, मयूर बंध, सीमातीतबंध, कामदेव बंध, कामदेव पद पद्म बंध, कामदेव नख बंध, काम देव सीमातीतबंध, गणितबंध, नियमकिरण बंध, स्वामीनियम बंध, स्वर्णरत्न पद्मबंध, हेमसिंहासन बंध, नियम निष्टाव्रतबंध, प्रेमरोषविजय बंध, श्री महावीर बंध, महाअतिशय बंध, कामगणित बंध, महामहिमा बंध, स्वामी तपस्वी बंध, सामन्त भद्रबंध, श्रीमंत शिवकोटि बंध, महिमा तप्तबंध, कामितफलबंध, शिवाचार्य नियम बंध, स्वामी शिवायन बंध, नियम निष्ठा चक्रबंध, कामितबंध भूवलय, सूत्र वलय बंध, प्रथमोपशम सम्यकत्व बंध, गुरु परम्परा आचाम्ल व्रत बंध, सत्तपबंध, कोष्ठक बंध, अध्यात्म बंध, सोपसर्ग बंध, तपोदर्श, तपोबंध, सत्य वैभव बंध, उपशमक्षयादि बंध, सच्चारित्रबंध, अनुपरुक्त बंध आदि विधियाँ ।
इनके अनुसार विन्ध्यगिरि पर अंकित 'चक्रबंध' रोमकूप बंध जैसा प्रतीत होता है और पाइलोस टेब्लेट 'अक्ष बंध' जैसा । डॉ. महेन्द्र मनुज इस दिशा में कार्यरत हैं आशा है कि भूवलय का पठन हमारे सामने मानव विकास की नई विधियाँ लाएगा। वही चक्रबंधों की विशेषता समझकर बतला सकते हैं (कदाचित) कि चित्र ३ और ४ क्या संभव हैं 1
18 जनवरी 2003 जिनभाषित
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विन्ध्यगिरि की उस खड़ी शिला पर अंकित दो मुनि अपनी पीछी कमण्डलु सहित कायोत्सर्गी खड्गासन मुद्रा में हैं। वे दोनों भी अति प्राचीन पुरा अंकन की साक्षी हैं जो दो तपस्वी बंधु कुलभूषण तथा देशभूषण मुनि को प्रतिलक्षित करते हैं। बीसवें तीर्थंकर मुनिसुव्रत जी के काल के ये दोनों भाई सैंधव पुरा प्रतीकों में बार-बार उभर कर सामने आए हैं भले ही रामायण नहीं झलकी। एक सील / मुहर ऐसी है जो दो हृदयों को एक साथ दर्शाती है वे वीर धनुर्धारी हृदय हैं अर्थात् इन दोनों भाईयों की मानसिक चंचलता को प्रकट करती है। बाद की मुहर उन्हें अपने आप में स्वसंयम के भालों द्वारा संकल्पित दर्शाती है। तीसरी मुहर उन्हें आत्मस्थ दर्शाती है और चौथी मुहर उनका रत्नत्रयधारी होना। वे अब अगली दो मुहरों में तपस्वी भव्य के रूप में दर्शाए गए हैं तथा अगली मुहर में अतिनिकट भव्य । इसके बाद की मुहर उन्हें पुरुषार्थी रूप में दर्शाती है- हमारी शिला के चित्रांकन की तरह। वे दोनों ही सल्लेखना झूले में दीखते हैं और फिर पंचम गति की साधनारत स्थिति में। अंत में उन्हें भी चक्र से पार एरण्ड के बीजवत् पंचमगति धारी दर्शाया गया है। यह सब संकेतमय है।
भाषाविदों ने इन संकेतों को 'पुनरावृत्ति' की श्रेणी में रखकर अपना उद्यम समाप्त कर दिया किंतु वह तो पुनरावृत्ति नहीं दो बंधुओं की कहानी है जो जीवन की अति मूल्यवान सीख दिखलाती है। यह कल्पना नहीं साक्षात् घटित घटना है जिसे इतिहासकारों ने डायरी और ताड़पन्नों पर नहीं शिला के वक्ष पर शाश्वत् स्मृति हेतु अंकित किया है 1
उसी बंधु अंकन के नीचे मंदिर की छत को अपने कंधे पर रखे एक स्पष्ट किंतु छिपी हुई सी कायोत्सर्गी जिन मुद्रा है जिसे यहाँ चित्र १ में दर्शाया गया है। यह दिगम्बरी जिन मुद्रा सर्वाधिक प्राचीन अंकन है। इस शिला पर इसी के समीप बहुत ध्यान से देखने पर एक भाला, एक पीछी, एक त्रिशूल और सात खड़ी लकीरें अति प्राचीन (पुराकाल) काल से अपना संदेश दे रही हैं। यह पुरालिपि अन्य कुछ नहीं इसी सैंधव लिपि में अध्यात्म का अत्यंत गूढ़ उपदेश है। वह उपदेश इसी कायोत्सर्गी जिनमुद्रा से संबंधित है।
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भाला स्वसंयम का प्रतीक है जो हिंसा का नहीं अपनी हाथी जैसी शक्तिशाली इच्छाओं का निरोध करने के लिए अंकुश है।
इसी के बाद की वह पीछी जिन श्रमण के महाव्रत की प्रतीक है जिसके साथ २२ परीषहों की जय का उद्देश्य है। इसकी घुंडी पर से उत्तर कालीन लेख को फ्रेम किया गया है जो प्राचीन कन्नड़ में हैं।
अब एक स्पष्ट त्रिशूल है जो इस संदर्भ
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