Book Title: Jinabhashita 2004 01
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 24
________________ गतांक से आगे अनर्गल-प्रलापं वर्जयेत् मूलचन्द्र लुहाड़िया पृष्ठ २९ - 'दि. जैन वीतरागी साधु कभी अव्रती और । ओर अग्रसर हो रहे हैं, जो युक्ति युक्त नहीं है। अतः आगम की सरागी देवी देवताओं की पूजा अर्चना नहीं करते। तो दि. जैन | कसौटी पर कसकर देव शास्त्र गुरु का श्रद्धान करना ही उपादेय मनि या आचार्य का वेश रखकर भी सरागी देवी देवताओं की 1 हैं।' पूजा अर्चना करने का समर्थन/पोषण करता है अथवा उपदेश देता हूमड़ इतिहास भाग २ में भट्टारक उद्भव अध्याय में निम्न वाक्य पठनीय हैं:है, वह स्वयं वीतरागी साधु मुनि/आचार्य नहीं है। ऐसा साधु पृष्ठ २१४/२१५ 'भट्टारक परंपरा आचार्य बसंत कीर्ति भौतिक चमत्कारों द्वारा लोगों को प्रभावित कर कमार्ग का पोषण १३ वीं शताब्दी से प्रांरभ हुई है।' श्वेताम्बर और दिगम्बर भेद दृढ करता है।' हो जाने के बाद पुनः दिगम्बर सम्प्रदाय में वस्त्र धारण करने की पृष्ठ ३० 'बुन्देलखण्ड में एक अनुपम बात यह रही कि प्रथा शुरू हुई। मुस्लिम राज्यकाल में इसको और अधिक बल वहां की समाज ने कभी शासन देवी देवताओं को न पूजा और न मिला और आखिर भट्टारकों के लिए अपवाद मार्ग के रूप में भट्टारकों द्वारा रचित विधि-विधान पूर्वक पूजा अर्चना की और मान्य कर लिया गया। यद्यपि व्यवहार में वस्त्र का उपयोग भट्टारकों न सवस्त्र भट्टारकों को गुरु की मान्यता दी। अपितु मूल आम्नाय के लिए समर्थनीय ठहरा दिया गया तथापि तत्त्व की दृष्टि से नग्नता ही पूजनीय मानी जाती रही। भट्टारक पद प्राप्ति के समय का ही पोषण किया। यह बुंदेलखण्ड के लिए गौरव की बात है कुछ क्षणों के लिए ही सही परंतु नग्न अवस्था धारण करना कि आज तक श्रावकों ने मूल शुद्ध आम्नाय की परंपरा को आवश्यक रहा। कुछ भट्टारक मृत्यु समीप आने पर नग्न अवस्था अक्षुण्ण रखा।' लेकर सल्लेखना को स्वीकार करते रहे। नग्नता के इस आदर के पृष्ठ ३१ 'दि. जैन समाज में एक वर्ग भट्टारकीय परंपरा कारण ही भट्टारक परंपरा श्वेताम्बर सम्प्रदाय से पृथकता घोषित को मानता रहा और दूसरा वर्ग इसका विरोध करता रहा।' दि. करती रही। समाज के मूलसंघ के शुद्धाम्नायी वर्ग ने अपनी विचारधारा के पृष्ठ २१५ 'भट्टारक परंपरा का दूसरा विशिष्ट आचरण मठ और मंदिरों का निवास स्थान के रूप में निर्माण व उपयोग कारण सवस्त्र भट्टारकों को गुरु की मान्यता नहीं दी तथा भट्टारकों था।' को गुरु मानने वाला अथवा उसकी विचारधारा पर आश्रित वर्ग 'इन दो प्रथाओं के कारण भट्टारकों का स्वरूप साधुत्व इससे पृथक हो गया। से अधिक शासकत्व की ओर झुका और अंत में यह प्रकट रूप से 'बंदेलखण्ड का दि. जैन समाज प्रारंभ से ही मुल संघ स्वीकार भी किया गया। वे अपने को राज गुरु कहलाते थे और की शुद्धाम्नाय मान्यताओं की पालक रही है। और कालान्तर में राजा के समान ही पालकी छत्र चामर गादी आदि का उपयोग इसे ही यहाँ तेरह पंथी आम्नाय कहा जाने लगा।' करते थे। वस्त्रों में भी राजा के योग्य जरी आदि से सुशोभित वस्त्र पृष्ठ ३३ 'मूलसंघ शुद्ध आम्नाय में सचित्त द्रव्य से पूजा रूढ हुए थे। कमण्डलु और पीछी में सोने चांदी का उपयोग होने वर्जित है और रागीद्वेषी असंयमी देवों की पूजा वीतराग धर्म के लगा था। यात्रा के समय राजा के समान ही सेवक सेविकाओं विरूद्ध है। सरागी और वीतरागी दोनों को मान्यता देना विनय और गाड़ी घोड़ों का इंतजाम रखा जाता था। इसी कारण भट्टारकों मिथ्यात्व में शामिल है।' का पट्टाभिषेक राज्याभिषेक की तरह बड़ी धूम-धाम से होता पृष्ठ ३४ 'सवस्त्र भट्टारकों का युग प्रायः समाप्त हो गया | था। इसके लिए पर्याप्त धन खर्च किया जाता था जो भक्त श्रावकों है तथा अब दिगम्बर (निर्वस्त्र) साधुओं का उद्भव प्रमुखता से | में से कोई एक करता था। इस राज वैभव की आकांक्षा ही देश के बहुभागों में प्राय: हुआ है। परंतु भट्टारक युग की मान्यता/ भट्टारक पीठों की वृद्धि का एक प्रमुख कारण रही यद्यपि उनमें आचरण/शिथिलाचार जो मूल आम्नाय का विकृत रूप जाना और तत्त्व की दृष्टि से कोई मतभेद होने का प्रसंग ही नहीं आया।' माना गया है, उसका स्वरूप फिर से कई निर्वस्त्र साधुओं में भी पृष्ठ २१९ मंत्र तंत्रों की साधना द्वारा किसी देवी या देव पाया जाने लगा है। यंत्र, तंत्र, मंत्र, भौतिक लाभ का प्रलोभन, | को प्रसन्न कर लेना भट्टारकों का विशेष कार्य माना जाता था। शासन देवी देवताओं की पूज्यता तथा मुनित्व के तेरह प्रकार के | ऐहिक दृष्टि से मुक्त होने के कारण और श्रावकों से कम सम्बन्ध चारित्र से विचलित साधुओं से सम्बद्ध होकर श्रावक उन्मार्ग की । होने के कारण मनियों को मंत्र साधना करने का निषेध था। 22 जनवरी 2003 जिनभाषित बुद Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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