Book Title: Jinabhashita 2004 01
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 13
________________ प्रतिमा पर कलश ढोरने से आत्म शुद्धि की प्रेरणा मिलती है।। पदार्थ पूर्ण स्वतन्त्र है। प्रत्येक द्रव्य की स्वतन्त्रता जैन दर्शन की भगवान ने दीक्षा लेने के साथ ही घर-बार छोड दिया तो उनके | अपनी मूलभूत विशेषता है और दूसरी ओर कहा है प्रारम्भिक लिए इतना बड़ा समवशरण, गंधकुटी आदि बनाने की देवों को | अवस्था में पंच परमेष्ठी की स्तुति-वन्दन करना मुनि और श्रावक क्या आवश्यकता है? इसी तरह गृहस्थ लोग भी भगवान के लिए | का आवश्यक कर्त्तव्य है। आखिर पंचपरमेष्ठी और उनकी मूर्ति भी इतना बड़ा मंदिर, जिसके बनवाने में न जाने कितनी आरम्भ पर पदार्थ ही हैं उनकी स्तुति वंदना आदि भक्ति रूप परिणामों से जनित हिंसा होती है, क्यों बनाते हैं ? जबकि भगवान् तो दीक्षा | भक्त का आत्म कल्याण हो सकता है तो, मूर्ति के अभिषेक प्रक्षाल लेने के साथ ही घर-मकान का परित्याग कर वनों में चले जाते | आदि से भक्त का कल्याण क्यों नहीं हो सकता? इसमें शास्त्र हैं। आश्चर्य है कि गृहस्थ को भगवान् के अभिषेक के लिये निषेध | विरुद्धता क्या है इसकी दलील सामने आनी चाहिए। किया जाता है, क्योंकि भगवान् ने दीक्षा लेने के साथ ही स्नान प्रक्षाल का उद्देश्य प्रतिमा पर लगे हुये रजकणों का हटाना आदि का त्याग कर दिया। किन्तु भगवान् का मंदिर बनवाने का | है इसका आगम प्रमाण भी इन पण्डितों को पेश करना चाहिए। निषेध नहीं किया जाता जबकि भगवान् तो अपना शरीर आदि भी | बिना आगम प्रमाण के अपनी इच्छानुसार कुछ भी लिख देना मात्र छोड़कर निर्वाण पहुँच जाते हैं और हम प्रतिमा बनाकर उनका मूर्त | जिह्वा की कसरत है सार कुछ भी नहीं है। जबकि अभिषेक के रूप फिर खड़ा कर देते हैं। जिस मूर्त रूप के बनाने में भी आरम्भ | प्रमाण, अभिषेक की विधि, अभिषेक में बोले जाने वाले मंत्र जनित हिंसा होती है। यदि ये सब गृहस्थ के लिए वैध है और | विविध ग्रन्थों में मौजूद हैं। उससे हमें कुछ प्रेरणा मिलती तो अभिषेक भी वैद्य है और उससे कोई भी लेखक जो अपनी रचना बनाता है उसके मूल में हमें आत्म शुद्धि की प्रेरणा भी मिलती है। उसके अपने कुछ उसूल कुछ सामयिक परिस्थितियाँ होती हैं हम पहले लिख चुके हैं कि अरहंत की प्रतिमा और | उन्हीं में वह अपनी रचना ढालता है अतः हर रचनाकार से अपने साक्षात् अरहंत इन दोनों में अन्तर है, इसलिए यह तर्क गलत है | मान्य अभीष्ट तत्त्वों के उल्लेख की आशा करना अज्ञानता है। कि अरहंत वीतरागी हैं उनकी वीतरागी प्रतिमा का अभिषेक नहीं ____ अभिषेक का निषेध करने वाले इन पण्डितों की दो ही होना चाहिये। दलील मुख्य हैं एक तो यह है कि प्राचीन आचार्यों के ग्रन्थों में अरहंत प्रतिमा का अभिषेक जैनधर्म सम्मत है। अभिषेक की चर्चा नहीं है तथा जिन ग्रन्थों में अभिषेक की चर्चा जैनधर्म में अरहंत प्रतिमा का अभिषेक तब से है जब से पायी जाती है वे उनके मत में या तो प्रामाणिक आचार्य नहीं हैं जैनधर्म है। यदि जैनधर्म अनादि है तो अरहंत प्रतिमा का अभिषेक अथवा यह समय का प्रभाव था जिससे जैनाचार्य प्रभावित हुए और भी अनादि काल से ही है। परन्तु कुछ लोग इस तथ्य को स्वीकार उन्होंने देखादेखी अभिषेक आदि की प्रथा चला दी। अपनी इन्हीं न कर अपनी पंडिताई के आधार पर जिसका अभिप्राय इतना ही युक्तियों के आधार पर वे चंदन चर्चा, नैवेद्य, पुष्प आदि चढ़ाने का है कि हम भी कोई नई बात निकालें। आज अरहंत प्रतिमा के निषेध करते और उसे सनातन धर्म की नकल मानते हैं। लेकिन अभिषेक का निषेध कर रहे हैं। इस निषेध में उनकी दलील भी इससे वास्तविकता का खण्डन नहीं होता। दूसरा भी कह सकता है कि जैनों की वर्ण व्यवस्था की नकल सनातन धर्मियों ने की है बड़ी अजीबोगरीब है। उनका कहना है कि प्रतिमा पर रजकण जैसाकि आर्य समाज के विद्वान् कहा करते हैं कि वैदिक धर्म में मर्ति लग जाना स्वाभाविक है अत: उसकी स्वच्छता के लिये प्रक्षाल करना श्रावक के स्तवन-वंदन का ही प्रथम कार्य बना दिया गया। पूजा का होना जैनों की नकल है अर्थात् जैनों से ही यह मूर्ति पूजा रजकण तो साक्षात् साधु परमेष्ठी के शरीर पर भी लग जाती, वैष्णवों से आई है, पहले नहीं थी। अत: किसने किसकी नकल की बल्कि पसीने को लेकर वे शरीर का मैल बनकर जम भी जाती है है इसके लिए हमें ठोस ऐतिहासिक प्रमाण ढूँढ़ने होंगे। कौन सम्प्रदाय तब क्या साधु के शरीर का भी प्रक्षाल कर देना चाहिए? यदि पहले था कौन बाद में हुआ। कहा जाय कि प्रतिमा पर पानी डालने की बात तो बाद में चल अभी तक इन पण्डितों को यह भी पता नहीं है कि प्रक्षाल पड़ी है पहले तो उसे वस्त्र से ही झाड़ दिया जाता था। इस पर का क्या अर्थ है और अभिषेक का क्या अर्थ है। इन दोनों को वे एकार्थक समझते हैं जबकि दोनों के प्रयोग में जमीन आसमान का हमारा कहना है कि यदि वस्त्र से प्रतिमा का मैल हटाया जा सकता है, तो अकलंक के साधारण सा धागा डालने से प्रतिमा भी अन्तर है। जैन शास्त्रों में तो अभिषेक के बिना प्रतिमा पूजा नहीं सरागी हो सकती है, तो अनेक धागों के समूह वाले वस्त्र से बताई है। इसलिए अभिषेक करना पूजा का अंग है। इतना ही प्रतिमा तो और भी सरागी हो जाएगी। ऐसी स्थिति में प्रतिमा का नहीं बल्कि इससे अशुभ कर्मों की असंख्यातगुणी प्रतिसमय निर्जरा वस्त्र से पोंछना भी उपयुक्त नहीं बैठता । तब तो यों कहना चाहिए भी होती है। यदि पूजा करना भक्ति का प्रारूप है तो अभिषेक भी उसीतरह भक्ति का प्रारूप है। यदि अभिषेक उचित नहीं है तब तो कि प्रतिमा का न प्रक्षाल किया जाय न उसे पोंछा जाय मात्र उसे काँच के अन्दर बन्द करके रख देना चाहिए। जहाँ तक स्तुति द्रव्य पूजा भी उचित नहीं। अभिनन्दन ग्रन्थ से साभार वन्दना करने की बात है आखिर वह भी क्यों करना चाहिए? एक ओर तो इन लोगों का कहना है कि जगत् का प्रत्येक जनवरी 2003 जिनभाषित 11 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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