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'गुरु के पीछे चले तो तिर जाओगे'
अलवर, २३ जुलाई। 'गुरु के पीछे चलना सीख लिया तो इस संसार सागर से तिर जाओगे किन्तु गुरु को यदि अपने पीछे चलाने का प्रयास किया तो समझ लेना विनाश निश्चित है। जिन भव्य आत्माओं ने गुरुओं के, साधु-सन्तों के पीछे चल कर उनके ज्ञान, ध्यान, चर्या, साधना, भक्ति और त्याग संयम को अपने जीवन में अंगीकार कर लिया, उनका कल्याण हो गया और जो सिर्फ नाम, पद, वर्ग, जाति की संकीर्णता में अपने मूल 'जैनत्व' को भूल गए वह भटकते ही रहेंगे। खुद को जानने वाला और दूसरों को जगाने वाला ही सच्चा पथगामी है। जैनत्व की नींव इसी सिद्धान्त पर कायम है।'
कविता
बून्द का नाम सागर नहीं है किन्तु बून्द के बिना सागर संभव नहीं है। जब बून्द - बून्द की तरह अग्रवाल, पल्लीवाल, खण्डेलवाल, जैसवाल सब अपने मूल तत्व 'जैनत्व' के रूप में एक जुट होंगे तब समाज के सागर का स्वरूप जैनत्व के मूल स्वरूप को ऊँचाईयों पर ले जाएगा।
उन्होंने इस बात पर पीड़ा व्यक्त की कि उन्हें आज अलवर में मंगल प्रवेश के दौरान मार्ग में पड़ने वाले जैन मंदिरों का परिचय यह कह कर दिया गया कि यह खण्डेलवाल, पल्लीवाल, अग्रवाल, जैसवालों का मंदिर है, परन्तु यह किसी ने नहीं कहा कि यह जिनेन्द्र प्रभु का मंदिर है।
जिन मंदिरों में वीतराग प्रभु विराजमान हैं, उनकी पहचान वर्ग विशेष से जोड़कर सम्बोधन पर नाखुशी जताते हुए मुनिराज ने कहा कि सच्चा जैन वही है जो ३६ नहीं ६३ बनकर समाज की ।
जीवन के द्वार पर मौत ने दस्तक दी मैंने द्वार खोला
वह आ
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मुनि श्री सुधासागर जी
। सेवा में अग्रसर रहता है। ऐसे ही लोग अपनी संस्कृति, भक्ति, संकल्प और पावनध्येय की रक्षा कर पाएंगे। मुनिराज ने स्पष्ट शब्दों में चेताया कि कम कम इन ४ टाईटलों की दुर्गन्ध व वायरल के कीटाणु फैलाने वाले उनसे दूर रहें। उनके करीब वे ही लोग आएं जो एक सच्चे जैन के रूप में जैनत्व के प्रति श्रद्धा व निष्ठा रखते हैं। उन्होंने जैन समाज के बन्धुओं का आव्हान किया कि वे बून्द - बून्द को महासागर का रूप देने में अगुता बनें ताकि उस महासमुद्र से समाज के रत्न निकल सकें और एक दिन अलवर पूरे देश में अपनी अनूठी पहचान बनाकर प्रेरणा का स्त्रोत बन सके। मुनिराज ने जोर देकर कहा कि अपने को वर्ग-जातियों में नहीं बांटें, बल्कि जैन रूप में संगठित बनें। जो वीतराग प्रभु के मंदिर हैं, उनके न कोई मित्र हैं, न शत्रु फिर उन्हें जाति वर्ग में मत बांटो ।
बैठी
बातचीत भी की
पर
और वह चली गई
शायद मेरी
जिजीविषा देखकर
वह उठी
कुछ मुड़ी
और फिर चली गई,
अपने जीवन में आचार विचार को सरल बनाया तो फिर प्रभु शरण का यही सही जैनत्व का परिचय है । उस अमूल्य अवसर को व्यर्थ मत खोने दो। उसका आज और अभी से सदुपयोग करना शुरु कर दो, पता नहीं फिर मौका मिलेगा या नहीं। एक सांस का भी जब पता नहीं कि वह आएगी भी या नहीं फिर जिनेन्द्र देव के सच्चे भक्त व सेवक बनें। मंदिर किसी के नहीं हैं यह याद रहे। हम सब तो शरणागत हैं। वहाँ धर्म की शरण में आकर आत्मा का स्वभाव का पता लगता है। धर्म की पहचान धर्म के धारण से ही संभव है अतः अपनी शाश्वत पहचान बनायें ।
'अमृतवाणी' से साभार
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डॉ. वन्दना जैन कार्ड पैलेस
वर्णी कालोनी, सागर
जनवरी 2003 जिनभाषित
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