Book Title: Jinabhashita 2004 01
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 2
________________ आध्यात्मिक लोकगीत धन्नालाल जैन शास्त्री नन्हैय्या प्यारे हो आजा, तोह कराऊँ कौंड़ी के। कौंड़ी के कौंड़ी के देव शास्त्र गुरु श्रद्धा बिन हम, भाव विनाये कौड़ी के। रुपया फिर भी मूल्यवान हम, बिक गये पांच पसेरी के॥ कौंड़ी ... काल अनन्त निगोद गंवाया, नरकों में दारुण दुख पाया। करनी का फल चखते चखते, सिसक उठी जन-जन की काया॥ बड़े भाग्य चौपाया बन, धारे भव घोड़ा घोड़ी के॥१॥ कौंड़ी ... बोझा ढ़ोते जीवन बीता, खाने का नहिं रहा सुभीता। चौपाया बन सही यातना, भूख प्यास में जीवन बीता। चल न सके तब खाते आये, हन्टर कोड़ा कोड़ी के ॥२॥ कौंड़ी ... कष्ट सहन करते युग बीते, कान पड़ा प्रभु नाम कहीं ते। राग द्वेष मद मोह गरलभी, सुधा समझ आये हम पीते॥ पुण्ययोग नर बने चक्र में, फँस गये मोड़ा मोड़ी के ॥३॥ कौंड़ी ... देव योनि में क्षुद्रदेव बन, औरों के ऐश्वर्य देख धन। हीनभावना से पीड़ित हो, युग युग तक रोया द्रोही मन॥ भाव बिगाड़े आर्तध्यान में, विछुड़े जोड़ा जोड़ी के ॥४॥ कौंड़ी .. देव वही जो वीतराग हो, जिसे त्रिलोक त्रिकाल ज्ञात हो। औरों को कल्याण हेतु उपदेश प्रदाता, यथा भ्रात हो॥ ऐसे सच्चे देव छोड़ क्यों भटके, लाल निगोड़ी के ॥५॥कौंड़ी ... जब आबे पावन पर्दूषण, धरम धार काटें हम दूषण। शास्त्र सीख मानो, गुरु सेवा करो, बनो त्रिभुवन के भूषण॥ फँसो न मत्सर मान बढ़ायक, छल में होड़ा होड़ी के॥६॥ कौंड़ी .. नन्हैया प्यारे हो आजा, बाबा रे प्यारे हो आजा, तोहि सुनाऊं कौंड़ी के। रिटा. डिप्टी डायरेक्टर इन्डस्ट्रीज कानपुर (उ.प्र.) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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