Book Title: Jinabhashita 2003 11 Author(s): Ratanchand Jain Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra View full book textPage 5
________________ सम्पादकीय सदलगा सदा ही अलग जब पता चला कि इस वर्ष (सन् २००३ ई. में) पूजनीया आर्यिका आदर्शमति जी का ससंघ चातुर्मास परमपूज्य आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज की जन्म भूमि सदलगा में हो रहा है, तब मेरा तन रोमांचित हो उठा, क्योंकि गतवर्ष की तरह इस वर्ष भी आचार्यश्री ने मुझे चातुर्मास में प्रतिभामंडल की ब्रह्मचारिणी बहनों को संस्कृत और सर्वार्थसिद्धि पढ़ाने का आदेश दिया था और उनका शिविर आदर्शमति माताजी के ही तत्त्वावधान में उनके चातुर्मास स्थल पर होता है, अत: मेरे रोम-रोम में आनंद की लहर दौड़ गई कि इस बार इस सदी के सदाबहार अद्भुत सन्त की जन्मभूमि सदलगा के दर्शन का मौका मिलेगा। आचार्यश्री में बाल्यकाल से ही संसार को त्यागने और मोक्षपथ का राही बनने की जो छटपटाहट थी, उसके फलस्वरूप अपने दुर्लभ गुरु से दुर्लभ मुनिपद पाकर, उसके जिस आदर्शरूप को उन्होंने अपने में प्रतिबिम्बित किया है, उसने उन्हें अद्भुत बना दिया है। यह आदर्श मुनित्व की अद्भुतता ही विश्व के कोने-कोने से श्रद्धालुओं को उनके दर्शन हेतु खींचकर ले आती है और उनकी वीतराग छवि से झरती वैराग्यसुधा का अनवरत पान करते रहने के लिए बाध्य करती है। इस अद्भुतता के कारण ही आचार्यश्री से सम्बन्धित हर चीज अद्भुत लगती है। उनकी जन्मभूमि का इसीलिए अद्भुत लगना स्वाभाविक था। मन यह सोच-सोच कर रोमांचित होता था कि मैं सदलगा की उन गलियों में चलने का अवसर प्राप्त करूँगा, जहाँ आचार्य श्री बचपन में चले थे, जहाँ की धूल उनके चरणस्पर्श से पवित्र है, उस हवा का स्पर्श करूँगा जिसने आचार्यश्री के शरीर को छुआ होगा और जिसमें उनके बालशरीर की सुगन्ध व्याप्त होगी, उस घर को देखूगा, जिसकी दीवारें आचार्यश्री के जन्म और उनकी बाललीलाओं की साक्षी हैं, उस विद्यालय के दर्शन पाऊँगा, जो आचार्यश्री के विद्याध्ययन का माध्यम बन कर अमर हो गया और उन मंदिरों की वन्दना करूँगा, जहाँ आचार्यश्री ध्यान लगाते थे और स्वाध्याय करते थे। सदलगा पहुँचकर इन सभी स्थानों के बार-बार दर्शन किये और प्रफुल्लित हुआ। आचार्यश्री की जन्मभूमि होने से वह तीर्थ बन गया है। तीन माह इस तीर्थ में रहकर मैंने प्रचुर पुण्य अर्जित किया। सदलगा एक सुन्दर लघुनगर है। यहाँ गाँव की प्राकृतिक रमणीयता और नगर की आधुनिकता, दोनों का संगम है। कई जगह सड़क के एक ओर हरे-भरे खेत लहराते हुए मनोरम दृश्य उपस्थित करते हैं, तो दूसरी ओर आधुनिक साज-सज्जावाली दूकानों में सजी हुई विविध उपभोग्य सामग्री नगर की छटा बिखेरती है। आचार्यश्री के सदलगावास के समय वहाँ बिजली नहीं थी। वे लालटेन लेकर अपने मित्र मारुति के साथ दढ़वस्ती (बड़े मंदिर) और कलवस्ती (पाषाण मंदिर) स्वाध्याय के लिए जाते थे। किन्तु अब आचार्यश्री कल्पना भी नहीं कर सकते कि सदलगा कितना विकसित हो गया है। वहाँ की जनसंख्या अब तीस हजार हो गयी है ओर जैनों के घर जो आचार्यश्री के गृहत्याग के समय ५०० थे अब ७०० हो गये हैं। मूल बस्ती से बहुत दूर-दूर तक नये आकार-प्रकार के सुन्दर बँगले ओर दूकाने बन गयी हैं। आधुनिक जीवनशैली की ऐसी कोई चीज शेष नहीं होगी, जो वहाँ उपलब्ध न हो। एक मोटरकार को छोड़कर लगभग सभी किस्म के दुपहिया वाहनों के शो-रूम सदलगा में खुल गये हैं। टी.व्ही. सेट की दूकानें भी खुल गयी हैं। सब तरह की भवन-निर्माण सामग्री वहाँ से खरीदी जा सकती है। जगह-जगह एस.टी.डी., पी.सी.ओ. जीरोक्स मशीनें और कम्प्यूटर-टाइपिंग सेन्टर दिखाई देते हैं। सदलगा में विशाल बस स्टैण्ड तो है ही, वहाँ से कहीं भी जाने के लिए अच्छी-अच्छी टैक्सियाँ भी किसी भी समय प्राप्त की जा सकती हैं। नगरवाहन के रूप में वहाँ आटो भी चलते हैं। सदलगा में कहीं भी चले जाइये, सभी ओर पक्की सड़कें मिलेंगी, जो रात्रि में पूरे समय विद्युत्प्रकाश से जगमगाती रहती हैं। सदलगा कृषि प्रधान नगरी है। वहाँ के जैन तो प्रायः सभी कृषक हैं और सभी सम्पन्न हैं। अनेक जैन परिवार खेतों में ही घर बनाकर रहते हैं, कहीं-कहीं जैन मंदिर भी खेत के पास बना लिया गया है। खेतों में रहनेवाली जैन महिलाएँ भी कृषिकार्य में हाथ बँटाती हैं। उनके बड़े-बड़े खेत हैं और ट्रेक्टर से खेती करते हैं। अधिकांश जैन कृषकों के पास ट्रेक्टर हैं। मोटर साइकिल तो हर कृषक के पास है। अनेक जैन जीप और कार के भी स्वामी हैं। खेतों में अनेक प्रकर की फसलें उगाई जाती हैं, जैसे गन्ना, ज्वार, गेहूँ, मूंगफल्ली, तम्बाकू, हल्दी, दालें, केला, टमाटर, सोयाबीन आदि। नारियल के पेड़ तो खेतों के अलावा घर-घर में विद्यमान हैं। गाय-भैंसे भी सभी नवम्बर 2003 जिनभाषित 3 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 ... 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36