Book Title: Jinabhashita 2003 11
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 6
________________ जैन कृषक अपने खेतों में कमरे बनाकर पालते हैं। सब के यहाँ प्रचुर दूध, दही ओर घी होता है। वहाँ का घी बेहद स्वादिष्ट है। लोग सरलस्वभाव हैं। अतिथिसत्कार में निपुण हैं। प्रतिभामण्डल की बहनों की आवास व्यवस्था के लिए एक श्रावक ने अपना विशाल भवन खाली कर दिया और सभी श्रावकों ने मिलकर उन्हें हर सुविधा उपलब्ध कराने का भरसक प्रयत्न किया। समीपवर्ती इचलकरंजी नगर के श्रीमान् भी आवश्यक सामग्री उपलब्ध कराने में सदा आगे-आगे रहे। चातुर्मास में मुझे जहाँ ठहराया गया था, उस परिवार ने मुझे जो आदर प्रदान किया ओर मेरी सुखसुविधा का जो ख्याल रखा वह बेमिसाल है। सदलगा में किसी के घर चोरी नहीं होती। स्त्रियाँ आधीरात को भी सड़कों पर बेखौफ आ जा सकती हैं। सदलगा महाराष्ट्र की सीमा से लगा हुआ है, इसलिए वहाँ कन्नड़ और मराठी, दोनों भाषाएँ बोली ओर समझी जाती हैं। ग्रामीण वृद्ध महिलाएँ मराठी-शैली की साड़ी पहनती हैं। आधुनिक स्त्रियाँ, चाहे शहरी हों या ग्रामीण, उनकी साड़ी पहनने की स्टाइल उत्तरभारतीय है। पुरुष धोती, कमीज ओर टोपी अथवा पाजामा, कमीज, और टोपी पहनते हैं। नये युग के युवा पैन्ट-शर्ट और युवतियाँ सलवार-कुर्ता पहनने लगी हैं। सदलगा में पाँच जैन मंदिर हैं, जिनमें तीन प्राचीन हैं- शिखरवस्ती, दढ़वस्ती और कलवस्ती। कलवस्ती पूर्णत: पाषाणनिर्मित है और लगभग एक हजार साल प्राचीन है। आचार्यश्री विद्यासागर जी अपनी किशोरावस्था में कलवस्ती में ही जाकर ध्यानलीन होते थे। जहाँ वे ध्यानस्थ होते थे वह स्थान मुझे देखने का सौभाग्य मिला है। एक स्थान पर एक छोटे से कमरे में श्री चन्द्रप्रभ भगवान् की प्रतिमा विराजमान है, जिसे गुम्फा मंदिर कहते हैं। एक नया भव्य शान्तिनाथ मंदिर आचार्यश्री के निवास स्थान के ऊपर बनाया गया है, जिसका पंचकल्याणक महोत्सव फरवरी २००३ में हुआ था। नीचे के निवास स्थान की दीवारें पक्की कर दी गई हैं और उसके आकार-प्रकार में भी कुछ परिवर्तन किया गया है, किन्तु स्नानगृह ज्यों का त्यों है। वह बहुत बड़ा है। इस भवन में ही आर्यिकारत्न आदर्शमति जी के संघ की ब्रह्मचारिणी बहनें चातुर्मास में ठहरी हुई थी और उनका सौभाग्य तो देखिए, जहाँ आचार्यश्री की रसोई बनती थी, ठीक उसी स्थान पर उनका भी भोजन बनता था और ठीक उसी के सामने, जहाँ आचार्यश्री भोजन करने बैठते थे, उसी स्थान पर ब्रह्मचारिणी बहनें भी अपनी भोजनविधि सम्पन्न करती थीं। मुझे भी चातुर्मासकाल में उसी स्थान पर बैठकर भोजन करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। उस पवित्र भूमि के स्पर्श से अवश्य ही हमने पुण्यानुबन्धी पुण्य आर्जित किया होगा। आचार्यश्री के घर से लगा हुआ उनके एक चचेरे भाई का भी घर था, जहाँ अब धर्मशाला बन गई है। इसकी ऊपरी मंजिल पर आर्यिकासंघ विराजमान था, जिसके फलस्वरूप आर्यिका श्री आदर्शमति जी और उनके संघ की सभी आर्यिका माताएँ भी चातुर्मास पर्यन्त आचार्यश्री के पड़ोस में रहने का पुण्यानंद अनुभव करती रहीं। यह अद्भुत है कि सदलगा के समीप ही वे तीन महान् भूमियाँ हैं, जहाँ बीसवीं शताब्दी के अन्य तीन महान् दिगम्बराचार्यों ने १५ किलोमीटर की दूरी पर भोज ग्राम है, जिसने दुनिया को परमपूज्य आचार्य श्री शांतिसागर जी के रूप में एक दिव्य उपहार प्रदान किया। बीस किलो मीटर पर कोथली ग्राम है, जो परमपूज्य आचार्य श्री देशभूषण जी को अपनी गोद में खिलाकर धन्य हुआ है। और ३५ किलोमीटर पर शेडवाल नामक गाँव है जिसे परमपूज्य आचार्य विद्यानन्द जी ने अपने जन्म से सुशोभित किया। लगता है सदलगा और उसके चारों और की भूमि दिव्य पुद्गल-परमाणुओं से निर्मित है, इसीलिए बीसवीं शताब्दी में जिनशासन की अभूतपूर्व प्रभावना करनेवाले चार दिग्गज दिगम्बराचार्य वहीं से उपजे हैं। सदलगा एक अतिशय तीर्थ क्षेत्र बन गया है। इस युग में वहाँ एक ऐसा अतिशय हुआ है, जो अन्यत्र देखने में नहीं आया। वहाँ एक ही परिवार में सात निकट भव्य जीव अवतरित हुए हैं, जिनमें से एक ने 'विद्यासागर' नाम से अतिशय कीर्तिवान् , अतिपूजित परमोपकारी दिगम्बराचार्य की पदवी पायी है। तीन ने अपनी आगमसम्मत उत्कृष्टचर्या से मुनिपद को पूज्यता के उच्चस्तर पर पहुँचाया है, जिन्हें लोग मुनि श्री समयसागर, मुनि श्री योगसागर और स्व. मुनि श्री मल्लिसागर के नाम से जानते हैं। प्रथम दो मुनिराज आचार्य श्री विद्यासागर जी के पूर्वाश्रम के अनुज हैं और अन्तिम मुनिश्री इन तीनों के पिता थे। आचार्यश्री की माता जी ने श्री समयमति नाम से आर्यिका-दीक्षा लेकर अपनी मनुष्य पर्याय को सार्थक किया है। और आचार्यश्री की दो अनुजाएँ, बहिन शान्ता और स्वर्णा बालब्रह्मचारिणी की अवस्था में संयम की साधना कर रही हैं। आचार्यश्री के अग्रज श्री महावीर जी अष्टगे और उनकी पत्नी श्रीमती अलका भाभी भी अब घर में 'जल तैं भिन्न कमल ' के समान जीवन व्यतीत कर रही हैं। यह सदलगा की भूमि पर हुआ एक महान अतिशय है। आचार्यश्री के अन्यतम शिष्य मुनि श्री नियमसागर जी ने भी अपने जन्म से सदलगा की धरती को कृतार्थ किया है तथा संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश के सुप्रसिद्ध महान् विद्वान् एवं अनेक शोघपूर्ण ग्रन्थों के लेखक प्रो. (डॉ.) आदिनाथ नेमिनाथ उपाध्ये भी 4 नवम्बर 2003 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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