Book Title: Jinabhashita 2003 11
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 4
________________ - गोमटेश अष्टक मुनि श्री योगसागर जी (वसन्त तिलका छन्द) है विश्वख्यात जिनबिम्ब अपूर्वता है। सौंदर्य पूर्ण मन मोहकता कला है। यों वीतराग झलके हर अंग से है। साक्षात् धर्म हम को दिखने लगा है। ये मौन से कह रही निज को निहारो। सारे अनर्थ मिटते शिव सौख्य धारो॥ मानों अनेक भव संचित पुण्य आया। श्री गोमटेश्वर सुदर्शन लाभ पाया। क्या रूप वर्णन करूँ उपमा नहीं है। है काम देव समरूप लिया हुआ है। जो भी स्वरूप लखता मन शांत होता। जो चित्तके मदन का मद चूर होता ॥३॥ अम्भोज से चरण सौरभता लिये हैं। सद्धर्म की महक व्याप्त यहाँ हुई है। भव्यात्म तो भ्रमर सा रस पान में है। गुंजायमान अहोरात यहाँ रही है। जो भी लखे स्वपर बोध सुजाग जाता। सच्चा निजात्म सुख क्या यह ज्ञात होता॥ आसक्ति तो विषय में रहती नहीं है। वैराग्य ज्योति स्वयमेव प्रकाशती है।। चैतन्य ज्ञानघनमंडित गोमटेश। आनन्द से छलकता सब ही प्रदेश। यों कोटिकोटिशः प्रणाम करूँ तुम्हें मैं। त्रैयोग पूर्वक त्रिकाल स्मरूँ तुम्हे मैं॥ है नग्न विग्रह विशाल सुसौम्यता से। आबाल वृद्ध लखते अविषादता से। निर्भीकता अभय शान्त मुखारविन्द। मैं बार-बार प्रण{ चरणारविन्द॥ ये है खड़ी इक सहस्र सुवर्ष बीते। आश्चर्य है अतुलनीय वसुन्धरा पै।। देखो दिगम्बर अपूर्व विराग भाता। ये वीतरागमय गौरव कीर्ति गाथा॥ आराध्य देव मम बाहुबली जिनेश। जो आद्य मोक्ष पद साधक गोमटेश।। मैं भक्तिपुष्प पाद-सरोज अपूँ। ओ शक्ति अर्पण करो भव पार होऊँ॥ 2 नवम्बर 2003 जिनभाषित - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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