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से वे साधु परलोक में भी नरकादिक दुर्गतियों में चिरकाल तक महा। प्रतिक्रमण क्रियाओं में गुरुवन्दना और देववन्दना आदि ये साथ ही घोर दुःखों के साथ परिभ्रमण किया करते हैं। अकेले विहार करने मिलकर करना चाहिए। (मूलाचार ५/१७) वाले मुनियों की ऐहलौकिक और पारलौकिक हानि होती है।
साधु की क्रियाओं पर विचार करते हुए श्री इन्द्रनन्दी ने यही आचार्य वीरनन्दी ने भी लिखा है
कहा हैश्रुतसंतानविच्छित्तिरनवस्थायमक्षयः।
मुखशुदिं न कुर्वन्ति नोपश्यि च भोजनम्। आज्ञाभंगश्च दुष्कीर्तिस्तीर्थस्य स्याद् गुरोरपि।
संघेन सह कुर्वन्ति नापेक्षन्ते च किञ्चन ॥ नीतिसार ९६ अग्नितोयगराजीर्णसर्पक्रूरादिभि क्षयः।
महाव्रती दिगम्बर साधु दातुन नहीं करते हैं, बैठकर भोजन स्वस्थाप्या दिकादेकविहारेऽनुचिते यतः॥३०॥ | नहीं करते हैं और संघ के साथ विहार करते हैं, अर्थात् एकाकी
आचारसार अधि. २ | विहार नहीं करते हैं दूसरों की सहायता नहीं चाहते हैं। मुनि के अकेले विहार करने से शास्त्रज्ञान की परम्परा का
वर्तमान साधु संस्था उक्त आगम के कथनों की उपेक्षा कर नाश हो जाता है । मुनि अवस्था का नाश हो जाता है, व्रतों का नाश
| रही है इससे भी अधिक सम्प्रति यह भी देखने में आ रहा है कि हो जाता है, शास्त्र की आज्ञा का भंग होता है, तीर्थ की अपकीर्ति
अकेला साधु और अकेली आर्यिका विहार कर रहे हैं और रात्रि में होती है, गुरु की भी अपकीर्ति होती है। अग्नि, जल, विष, अजीर्ण,
एक ही धर्मशाला या मंदिर में ठहर रहे हैं। समाज में आगम की सर्प और दुष्ट लोगों से तथा और भी ऐसे ही अनेक कारणों से अपना
मर्यादा की सोच तो समाप्त हो ही गई। साधु शास्त्रों को जानते/पढ़ते नाश हो जाता है अथवा आर्तध्यान, रौद्रध्यान और अशुभ परिणामों
हुए भी उनकी खुले आम मर्यादा का उल्लंघन कर रहे हैं। अकेली से अपना नाश हो जाता है। इस प्रकार अनुचित अकेले विहार करने
आर्यिका के साथ रहने और विहार की बात तो दूर रही मात्र आगम में इतने अधिक दोष इकट्ठे कर लेता है। जिनका उल्लेख मूलाचार
विषयक शंका समाधान हेतु आर्यिका मुनि के पास कैसे जावे, मुनि के समाचाराधिकार की गाथा संख्या १५१ की टीका करते हुए | किस प्रकार आर्यिका के प्रश्न का समाधान करे इस विषय में
आचार्य वसुनन्दी जी भी करते हैं-'मुनिकाकिना | आचार्य सकलकीर्ति का कथन दृष्टव्य हैविहरमाणेन गुरुपरिभवश्रुतव्युच्छेदा: तीर्थमलिनत्वजडता कृता भविन्त 'यदि कोई अकेली आर्यिका अकेले मुनि से शास्त्र के भी तथा विह्वलत्व कुशीलत्वपार्श्वत्वानि कृतानीति' मुनि के एकल विहार
प्रश्न करें, तो उन अकेले संयमी मुनि को अपनी शुद्धि बनाये रखने से गुरु की निन्दा होती है अर्थात् लोग कहते सुने जाते हैं कि जिस
के लिए कभी उसका उत्तर नहीं देना चाहिए। (मू.प्र.श्लोक२२) गुरु ने इनको दीक्षा दी है, वह गुरु भी ऐसा ही होगा। श्रुतज्ञान का यह वह आर्यिका अपनी गुरुणी (गणिनी)' को आगे करके कोई अध्ययन बंद होने से श्रुत/आगम का व्युच्छेद होगा। तीर्थ मलिन
प्रश्न करे, तो अकेले संयमी मुनि को उस सूत्र का अर्थ समझा देना होगा। अर्थात् जैन मुनि ऐसे ही हुआ करते हैं, इस प्रकार तीर्थमलिन
चाहिए। (मू.प्र.) होगा। जैन मुनि मूर्ख, आकु| त, कुशील, पार्श्वस्थ होते हैं ऐसा
कोई तरुण श्रेष्ठ मुनि किसी तरुणी आर्यिका के साथ कथा लोगों के द्वारा दूषण किया जायेगा, जिससे धर्म की अप्रभावना
या बातचीत करें तो उसको नीचे लिखे पांचों दोष लगते हैंहोगी। इतना ही नहीं और भी विपत्तियाँ अपने ऊपर ले लेता है जैसा
(१) जिनाज्ञा भंग कि कहा है
(२) जिनशासन अप्रभावना कंटयखण्णुयपडिणिय साण गोणादि सप्पयेच्छेहि।
(३) मिथ्यात्व की आराधना पावइ आदविवत्ती विसेण च विसूइया चेव॥
(४) व्रत भंग मूलाचार १५२
(५) संयम की विराधना कांटे, ढूंठ, विरोधीजन, कुत्ता, गौ आदि तथा सर्प और
स्त्री का संसर्ग किस प्रकार से मनुष्य को संयम से च्युत कर म्लेच्छ जनों से अथवा विष से और अजीर्ण आदि रोगों से अपने
देता है, इसका विचार करते हुए ज्ञानार्णव में कहा गया है- जो आप में विपत्ति को प्राप्त कर लेता है।
तपश्चरण में तत्पर हैं, व्रतों का परिपालन करता है, मौन को धारण इसी संदर्भ में और भी कहा है
करता है, सावद्य प्रवृत्ति से रहित है तथा इन्द्रियों को वश में रखता दव्वादिवदिक्कमणं करेदि सुत्तथसिक्कलोहेण।
है, वह भी निर्भय होकर स्त्री के अनुराग से संयम को कलंकित कर असमाहिमसज्झायं कलह वाहिं वियोगं च ॥मूला. १७१
डालता है। तपस्वियों के संयम आदि गुण सर्वत्र वृद्धि को प्राप्त होते यदि सूत्र के अर्थ की शिक्षा के लोभ से द्रव्य, क्षेत्र आदि
हैं परन्तु स्त्री के संयोग को पाकर वे क्षण भर में ही नष्ट हो जाते हैं। का उल्लंघन करता है तो वह समाधि, अस्वाध्याय, कलह, रोग
मुनि स्थिरता, श्रुत, शील और कुल की परम्परा को तब तक ही और वियोग को प्राप्त करता है।
धारण करता है, जब तक कि वह अन्यत्र स्त्री के नेत्रों रूप बन्धन आचार्यवर्य प्रतिक्रमण की भी क्रियाएँ अकेले करने का
| से नहीं रोका जाता है। निषेध करते हैं- दैवसिक, रात्रिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक, वार्षिक ।
अकेली स्त्री के साथ में वार्ता का भी निषेध किया है।
नवम्बर 2003 जिनभाषित १
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