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केन्द्र न रहते हुए, जातिए नेताओं के अड्डे बन गए।' (पृष्ठ १२४/१२५/३७३ )
'दक्षिण भारत जैन सभा के पहले महामंत्री अप्पाजी बाबाजी हजे ने 'जिनविजय' मासिक के जून १९०२ के अंक में लिखा है आज के भट्टारक द्रव्य लोभी सुखासक्त होकर ही धर्म हानि कर रहे हैं।' (पृष्ठ ३९५ )
श्री नीरज जी ने अत्यंत आश्चर्यजनक ढंग से मिथ्या आरोप लगाया है कि मैंने और बैनाड़ा जी ने अपनी रूचि के अनुसार नमक मिर्च लगाकर पुस्तक तैयार की है। पहली बात तो यह है कि पुस्तक में माननीय रतनलाल जी बैनाड़ा ने जैन हितैषी में प्रकाशित लेख माला ज्यों की त्यों प्रकाशित की है। अर्द्ध विराम पूर्ण विराम का भी कही अंतर नहीं है। हमने तो पुस्तक मुद्रित होने के बाद ही देखी है । फिर किसी लेखक की पुस्तक में नमक मिर्च लगाकर रूप बदलकर लेखक के नाम से छपा देना तो साहित्यिक तस्करी की श्रेणी का अपराध है, जिसकी हम तो कल्पना भी नहीं कर सकते । बिना पूर्व जीवन के अनुभव और अभ्यास के न तो ऐसा कार्य किया जा सकता है और न दूसरों के द्वारा ऐसा किया जाने के बारे में सोचा ही जा सकता है। अपनी ओर से नमक मिर्च लगाकर पुस्तक तैयार करने की बात आपने ऐसे लिखी है जैसे आपने मूल पुस्तक से इस पुस्तक का मीलान कर वे स्थल ढूँढ लिये हैं, जहाँ मिलावट है। यदि आप में सत्य के प्रति निष्ठा हो तो कृपया वे स्थल बतायें अन्यथा असत्य आरोप के लिए पश्चाताप करें। एक पत्रिका के संपादक को अपने संपादकीय में ऐसे गंभीर आरोप लगाने के पहले उसकी सत्यता की जांच कर लेने के अपने नैतिक दायित्व का निर्वाह तो करना ही चाहिए था।
आपका दूसरा आरोप है कि यह पुस्तक भट्टारकों की छवि मलिन करने और समाज में घृणा फैलाने के उद्देश्य से ही प्रचारित की है। वस्तुत: यह आरोप हम से पहले उन सम्माननीय स्वर्गस्थ लेखक और आज से ९० वर्ष पूर्व इसका मराठी अनुवाद प्रकाशित कर वितरण करने वाली 'दक्षिण भारत जैन सभा' पर जाता है। इतना ही नहीं यह आरोप उन अनेक परवर्ती इतिहास लेखकों, आलेख लेखकों और अन्य पुस्तकों के लेखकों पर जाता है जिन्होंने इस सदोष विकृत आगम विरूद्ध भट्टारक संस्था में आए दोषों को जैन संस्कृति की रक्षा के लिए समाज के समक्ष समय-समय पर उजागर किया है। श्रीमद् कुंदकुंदादि आचार्यों ने 'असंजदं न वंदे' का उद्घोष किया और शिथिलाचारी साधुओं की भर्त्सना की तो क्या उन सबको भी आप समाज में घृणा फैलाने के दोषी कहने का दुस्साहस कर पायेंगे ?
माननीय नीरज जी ने संभवतः भट्टारक पुस्तक के अंतिम पांच अध्याय 'ये गृहस्थ हैं या मुनि' 'अब भट्टारकों की जरूरत है या नहीं' 'स्वरूप परिवर्तन' 'स्वरूप परिवर्तन से लाभ' और 'उपसंहार' नहीं पढ़े हैं। यदि आपने पढ़ा होता तो आप की बंद आंखे खुल जाती और आप पुस्तक के लेखक पर समाज में घृणा
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फैलाने का आरोप लगाने का दुस्साहस नहीं करते। अपितु आप स्वयं को अपराध बोध से ग्रसित अनुभव करते। अंतिम अध्यायों में लेखक ने भट्टारकों के पद की आवश्यकता का समर्थन करते हुए उनके स्वरूप परिवर्तन पर जोर दिया है और लिखा है कि स्वरूप निर्धारण से तेरह पंथ, बीस पंथ की कटुता दूर होगी, भट्टारकों का परिवर्तित आगम समर्थित स्वरूप स्थापित होगा और भट्टारकों का वर्तमान विकृत आगम विरुद्ध स्वरूप समाप्त होगा।
हम विचार तो करें कि भट्टारक पद, जिस रूप में आज है, का जैन चरणानुयोग आगम में क्या स्थान है? जैनाचार्यों में सम्यक्चारित्र के दो भेद किए हैं। सकल चारित्र मुनियों के होता है और विकल चारित्र श्रावकों के आचार्य कुंदकुंद ने मुनि, आर्यिका एवं उत्कृष्ट श्रावक ये तीन लिंग (पीछी धारी) बताये हैं और यह स्पष्ट घोषणा की है कि जैन दर्शन में चौथा कोई लिंग नहीं है। आज के इन पीछी धारी किंतु परिग्रहवान भट्टारकों की उक्त तीन लिंगों में से किस लिंग में गणना की जा सकती है? तथा मुनि और श्रावक इन दो पदों में से भट्टारकों का कौन सा पद है?
इस प्रकार भट्टारक पुस्तक के यशस्वी विद्वान लेखक ने भट्टारकों के जैनागम सम्मत स्वरूप निर्धारण की हितकारी सलाह देकर भट्टारकों की वर्तमान विकृत छवि को उज्जवल बनाने का प्रयास किया है न कि धूमिल करने का। यदि निष्पक्ष होकर विचार करें तो भट्टारकों के वर्तमान आगम विरूद्ध विकृत रूप का स्वार्थवश समर्थन करने वाले लोग भट्टारकों की धूमिल छवि को धूमिल ही बनाए रखने के पक्षधर होने से वे भट्टारकों के एवं जैन धर्म के सच्चे हितैषी नहीं हो सकते हैं।
यह तो सभी स्वीकार करते हैं कि भट्टारक मुनि तो नहीं हैं यदि मुनि नहीं हैं तो क्या वे श्रावक हैं? यदि श्रावक हैं तो उनके श्रावक की 11 प्रतिमाओं में से कौनसी प्रतिमा है ? संभवत: इस प्रश्न का उत्तर भी निराशाजनक ही होगा। उनकी वर्तमान चर्या में तो उन्होंने किसी भी प्रतिमा के व्रत विधि पूर्वक ग्रहण नहीं किए हुए हैं। ऐसी दशा में चरणानुयोग के अनुसार उनका कौनसा पद है? दुःख तो तब होता है जब मुनि नहीं होते हुए भी वे अपने आप को मुनि के समान विनय सत्कार कराते हैं। गृहत्यागी परिग्रह त्यागी क्षुल्लक मुनि के चिन्हरूप पीछी वे किस आधार पर रखते हैं? यह बताया गया है कि भट्टारक दीक्षा विधि मुनि के समान की जाती है। उन्हें एक बार कुछ क्षणों के लिए वस्त्र त्याग कर मुनि बना दिया जाता है। दीक्षा के समय वे सोने की पीछी व चांदी का कंमडलु ग्रहण करते हैं तथा भट्टारक मठ की सत्ता सूचक सील वाली मुद्रिका भी ग्रहण करते हैं। तभी श्रावकगण उनसे प्रार्थना करते हैं कि स्वामीजी इस पंचम काल में वस्त्र त्यागकर दिगम्बर भेष धारण करना संभव नहीं है इसलिए आप वस्त्र धारण कर लीजिए। हम आपका आदर सत्कार मुनि के समान ही सदैव करते रहेंगे। श्रावकों की इस प्रार्थना को स्वीकार कर वे सिल्क के कीमती गैरूआ वस्त्र व साफा पहन लेते हैं और मयूर पंख की पीछी भी धारण कर लेते नवम्बर 2003 जिनभाषित
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