Book Title: Jinabhashita 2003 11
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 12
________________ आचार्य और मुनियों को अर्यिकाओं के साथ विहार का भी निषेध | जिस प्रकार पित्त ज्वर वाले मनुष्य को शर्करा सहित दूध - है। इस विषय में इन्द्रनंदि कथन इस प्रकार है - श्रेष्ठ मुनियों को अच्छा नहीं लगता, उसी प्रकार स्वच्छन्द वृत्ति/इन्द्रिय विषय सेवी आर्यिकाओं के साथ मार्ग में गमन नहीं करना चाहिए क्यों कि | के लिए गुरु के वचन भी हितकर नहीं लगते हैं। चतुर्थकाल में भी आर्यिकाओं की संगति में बहुत यतिराज दु:ख के | एकल विहारी साधु कोठियों/बंगलों में ठहरने लगे हैं। अब भाजन हुए हैं और अपकीर्ति के भाजन बने हैं। धर्मायतन असुविधा युक्त कहकर ठहरने योग्य नहीं मानकर अकेला कतिपय मुनि और आर्यिकाओं द्वारा मंत्र-तंत्र दिये जा रहे | साधु सेठ/साहूकार को उपकृत करने के लिए उसके घर में ही रात्रि हैं, वही उनके सेवा कराने के माध्यम हैं अपनी सेवा कराने की इस | विश्राम कर रहा है जबकि आचार्यों ने श्रावक के घर में रात्रि विश्राम प्रकार की वृत्ति को अपनाकर आचार्यों की आज्ञा का उल्लंघन पूर्ण | का सर्वथा निषेध किया है। रूप से किया जा रहा है क्योंकि उन्होंने स्पष्ट लिखा है जैसा कि इन्द्रनन्दि लिखते हैंउच्चैरध्ययनं संगीतं पठनं मुंचेदबुधो हास्यतां, श्रमणः श्राविकानां निवासे निशि न स्वपेत्। स्वावासस्थितिभंग वीक्षण सहालापांगसंस्पर्शनम्। चित्रकारापि योषा यच्चित्तविभ्रमकारणम्।। नीतिसार स्त्रीभिस्तत्सुललानं बहुपुरो जायापति प्रस्तुतिं, श्रमण श्राविका आदि के निवास में रात्रि में शयन न करे होरा मंत्र निमित्त भैषज चित्त द्रव्यांगं सम्पोषणम्॥ | क्योंकि चित्र में अंकित स्त्रियों का आकार भी चित्त में कामवासना - गुरु के सामने चिल्लाकर पढ़ना, गाकर पढ़ना, यह उचित नहीं | उत्पन्न होने का कारण है। है। स्त्रियों के आवास में रहना, उनके सुन्दर अंगों को देखना, उनके आचार्य सकलकीर्ति ने स्पष्ट लिखा हैसाथ संभाषण व अंग स्पर्शन करना, उन स्त्रियों के पुत्रों को खिलाना, स्थितिस्थानविहारादीन-समुदायेन संयताः। स्त्रियों की प्रशंसा करना, ज्योतिष, मंत्र औषधि इत्यादि द्रव्य के कुर्वन्तु स्वगुणादीनां वृद्धये विधहानये॥२२३५ ।मू.प्र. साधनों से उनका पोषण करना यह मुनियों को सर्वथा वर्ण्य है। मुनियों को अपने गुणों की वृद्धि करने के लिए तथा विघ्नों एकल विहार करने वाले मुनि को धर्म की सबसे बड़ी हानि | को शान्त करने के लिए अपना निवास व विहार आदि सब समुदाय करने वाला सिद्ध किया है जैसा कि आचार्य वट्टकेर का कहना है | | के साथ ही करना चाहिए अर्थात् अकेले न रहना चाहिए और न कि एकाकी विहार करने वाले के अनेक पाप स्थान होते हैं- । विहार करना चाहिए। आणा अणवत्थाविय मिच्छत्ताराहणादणासो य। जब किसी एकल विहारी मुनि महाराज से निवेदन किया संजम विराहणा वियएदे दुणिकाइयाठाणा।।मूला.१५४ | जाता है कि अकेले विहार/निवास करने से आपकी चर्या में दोष अर्थात् एकाकी रहने वाले के आज्ञा का उल्लंघन, अनवस्था, | लगता है, तब वह तुरन्त बोलते हैं कि आगम में भी अकेले विहार मिथ्यात्व का सेवन, आत्मनाश और संयम की विराधना ये पांच पाप | की आज्ञा है । इस प्रकार कहते समय वह इस बात को बिल्कुल भी स्थान माने गये हैं। सर्वज्ञदेव की आज्ञा का उल्लंघन सबसे बड़ा दोष | ध्यान में नहीं लाते हैं कि किन मुनिराज को अकेले विहार/आवास है। अकेले विहार करने वाले को गुरु भी नहीं माना गया है जैसा आदि की आज्ञा आगम देता है, जिनको आगम में एकलविहारी कि श्री इन्द्रनन्दिसूरि लिखते हैं बनने की अनुमति प्रदान की गयी है, वे जिन विशिष्ट गुणों के धारी यो यो गुणाधिको मूल गुणगच्छाद्यलंकृतः। होते हैं । वह गुण इस पंचम काल के ही संहननधारी साधक में नहीं सर्वोप्युच्यते जैने: गुरुरित्युज्झितस्मयैः।। पाये जाते हैं और वर्तमान में एकलविहार करने वाले और उसका नीतिसार समुच्चय ८५ | समर्थन करने वालों में वह योग्यता बिल्कुल भी नहीं है, जिस जो मुनि गुणाधिक हैं अर्थात् ज्ञानध्यान, चारित्र आदि गुणों योग्यता वाले मुनि महाराज को अकेले विहार की आज्ञा जैनाचार्यों में श्रेष्ठ हैं, मूलसंघ के गण और गच्छ से अलंकृत हैं, वह निरभिमानी ने विशेष परिस्थिति और गुणों की अपेक्षा प्रदान की है। आगम के श्रावक के द्वारा गुरु कहे गये हैं। आलोक में उन संदर्भो को भी देखिए, जिनमें अकेले विहार करने यहाँ उसी साधु को गुरु मानने को कहा है, जो गण और | का उल्लेख है। गच्छ में रहते हैं। तीन साधुओं के समूह को गण कहते हैं और सात | आचार्य वट्टकेर ने मूलाचार के समाचार अधिकार में लिखा साधओं के समूह को गच्छ कहते हैं। आदि कहने से बहुत से | है कि कौन मनि महाराज अकेले विहार कर सकते हैंसाधुओं के समूह का भी ग्रहण होता है। तवसुत्तसत्तएगत्त भाव संघहणधिदिसमग्गो य। अकेले विहार करने पर स्वच्छन्दता आ जाती है और पविआ आगमवलियो एयविहारी अणुण्णादो॥२८॥ स्वच्छन्द वृत्ति वाले मुनि को गुरु और शास्त्र के वचन रुचिकर नहीं तप सूत्र, सत्त्व, एकत्त्वभाव, संहनन और धैर्य इन सबसे लगते हैं परिपूर्ण दीक्षा और आगम में बली मुनि एकलविहारी हो सकता है। न तस्मै रोचते सेव्यं गुरुणां वचनं हितम्। इस गाथा में स्पष्ट ध्वनित है कि जो उत्तमसंहनन वाला हो, तपोवृद्ध स शर्करमिवक्षीरं पित्ताकुलित चेतसे ॥३ नीतिसार । और ज्ञानावृद्ध हो, आचार पालन और सिद्धान्त जानने में चतुर हो, 10 नवम्बर 2003 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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