Book Title: Jinabhashita 2003 11
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

View full book text
Previous | Next

Page 7
________________ सदलगा के सपूत थे । इस विद्वद्रत्न से भी सदलगा के अतिशय में वृद्धि हुई है। I इतना ही नहीं, सदलगा में एक और विभूति है, आचार्य श्री के बालसखा मारुति जी। वे जन्मना अजैन हैं। बचपन से ही उनकी बालक विद्याघर से प्रगाढ मैत्री थी । सदलगा में बालक विद्याधर का जितना स्नेह और विश्वास मारुति जी ने पाया है, उतना और किसी को पाने का सौभाग्य नहीं मिला। दोनों साथ-साथ स्कूल जाते थे, साथ-साथ खेलते थे, साथ-साथ खेत में काम करते थे और साथसाथ जिनालय में जाकर जिनभक्ति, स्वाध्याय एवं ध्यान करते थे। युवा विद्याधर के साथ मारुति ने भी आजीवन ब्रह्मचर्यव्रत ग्रहण किया था, जिसका पालन वे आज तक कर रहे हैं। वे अब लगभग ६२ वर्ष के हो गये हैं। उनके साथ उनकी बहन रहती हैं। सभी शुद्ध शाकाहारी और दिवसभौजी हैं मारुति जो प्रतिदिन दोनों समय जिनमंदिर देवदर्शनार्थ जाते हैं। उन्हें णमोकारमंत्र, भक्तामरस्तोत्र आदि कण्ठस्थ हैं। आचार्यश्री के साथ बचपन में कण्ठस्थ किये गये रत्नाकरशतक के श्लोक आज भी उन्हें याद हैं। मुझे सदलगा में कई बार उनके मुख से सुनने का अवसर प्राप्त हुआ है। उनका स्वर भी मधुर है। उनकी विशेषता है अतिसरलता, विनम्रता एवं निःस्पृहता। आचार्य श्री के प्रति उनकी कितनी निष्ठा और समर्पणभाव है, यह एक ही उदाहरण से ज्ञात हो जाता है। स्कूल की शिक्षा समाप्त करने के बाद आचार्यश्री घर छोड़कर मोक्षमार्ग ग्रहण करने के लिए आतुर थे। वे उस समय राजस्थान में विद्यमान आचार्य देशभूषण जी के पास जाना चाहते थे । पर यात्रा के लिए रुपयों की समस्या थी। घर में किसी को बतला नहीं सकते थे, क्योंकि ऐसा करने पर घर से निकलने पर ही प्रतिबन्ध लग जाता। अतः उन्होंने अपने मित्र मारुति को ही अपनी समस्या बतलायी। मारुति एक रुपया रोज पर खेतों में मजदूरी करते थे। उन्होंने उसमें से प्रतिदिन बचत करते हुए तीन साल में एक सौ बारह रुपये जोड़े और अपने प्रिय मित्र को दे दिये। तथा एक दिन उन्हें चुपचाप बस में बैठाल कर जयपुर के लिए रवाना कर दिया और घर आकर मित्र के वियोग से बहुत रोये । जब अजमेर में आचार्यश्री को मुनिदीक्षा दी जा रही थी, तब उनके अग्रज श्री महावीर जी के साथ मारुति जी भी वहाँ पहुँचे थे। दीक्षा के समय आचार्य श्री ने यह रहस्य खोला कि उन्होंने मारुति से एक सौ बारह रुपये लिये थे। घर आकर महावीर जी मारुति जी को एक सौ बारह रुपये देने लगे, तब मारुति जी ने उत्तर दिया 'मैं अपने पुण्य को बेचना नहीं चाहता।' सुनकर महावीर जी स्तब्ध रह गये। एक अजैन व्यक्ति विद्याधर की संगति से कितना बड़ा जैन बन गया था ! निर्लोभ और त्याग की ऐसी मिसाल सम्राटों में भी दुष्प्राप्य है, जो एक रुपया रोज की मजदूरी करने वाले ने पेश की थी। वृद्ध मारुति तीन साल से एपेण्डिसाइटिस से पीड़ित थे। अभी जब हम सदलगा में थे, तब एक रात उनका एपेण्डिक्स बर्स्ट हो गया। उनकी बहन रात को तीन बजे मारुति जी के शुभचिन्तक और एक सम्पन्न, सहृदय जैनकृषक श्री रवीन्द्र प्रधान के घर दौड़ी आयीं। मैं इन्हीं का अतिथि था । रवीन्द्र जी तुरन्त जीप की व्यवस्था कर मारुति जी को चिक्कोड़ी ले गये ओर एक प्राइवेट नार्सिंग होम में उनका उसी सुबह आपरेशन कराया। मारुति स्वस्थ हो गये। चिकित्सा का सारा खर्च रवीन्द्र जी ने ही उठाया। मारुति जी की तो एक पैसा भी खर्च करने की हैसियत नहीं थी। मारुति जी कहते हैं- 'रवीन्द्र जी ने मुझे पुनर्जन्म दिया है।' सदलगा की भूमि ने ऐसे उदार और अनुकम्पावान् श्रावकों को भी जन्म दिया है। सचमुच सदलगा सदा ही अलग है। परमपूज्य आचार्य श्री विद्यासागर जी की आदर्श शिष्या पूजनीया आर्थिका आदर्शमति जी और उनके संघ की सोलह आर्थिका माताओं ने अपने परम श्रद्धेय गुरु की जन्मभूमि में चतुर्मास का अवसर प्राप्त कर अपने को परम धन्य माना। उन्होंने अपनी उत्कृष्ट चर्या और मार्मिक प्रवचनों से सदलगा के श्रावकों का मन मुग्ध कर दिया। सदलगावासियों ने आर्यिका संघ के माध्यम से तप और सादगी की वह सुगन्ध पायी है, जिसका उन्होंने अभी तक आस्वादन नहीं किया था। यह सुगन्ध उनके रोम-रोम में चिरकाल तक बसी रहेगी। आर्यिका श्री आदर्शमति जी के वात्सल्यमय अनुशासन में रहने वाली १३ ब्रह्मचारिणी बहनों और प्रतिभा मण्डल की आजीवन ब्रह्मचर्यव्रत भारिणी ७० शिक्षार्थिनी बहनों तथा ब्र. गीता दीदी के दिव्य आचरण और शिष्ट व्यवहार ने भी सदलगावासियों के मन में धर्म की गंगा प्रवाहित की है। सदलगा के समस्त श्रावकों ने आर्यिका संघ का अतिभक्तिभाव से स्वागत और सत्कार किया तथा उनके दुर्लभ, पवित्र सान्निध्य का अधिकाधिक लाभ उठाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। अब सदलगावासियों की एक ही आकांक्षा है कि सदलगा की धरती आचार्य श्री के चरणों का एक बार पुनः नये रूप में स्पर्श करे। वे पलकें बिछाये उनकी प्रतीक्षा कर रहे हैं। रतनचन्द्र जैन Jain Education International For Private & Personal Use Only नवम्बर 2003 जिनभाषित 5 www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36