Book Title: Jinabhashita 2003 10
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

View full book text
Previous | Next

Page 12
________________ हैं। मूलनायक के गर्भगृह द्वार पर बायीं ओर पद्मावती की पाषाण मूर्ति और दायीं ओर चबूतरे पर इन्हीं का पाषाण फलक है। शिखर वेदी पर 4 फिट अवगाहन की पद्मासन पार्श्वनाथ भगवान् की प्राचीन प्रतिमा है। यह प्रतिमा यहाँ रानी का कौलाशा गांव से लाई गई है। ऊपर मंजिल पर भगवान् आदिनाथ, बाहुबली, भरत की विशाल प्रतिमायें नवीन स्थापित की गई हैं। क्षेत्र प्रांगण से मंदिर के पूर्व दिशा में विशाल मानस्तम्भ है। मुलनायक भगवान नेमीनाथ का पंचामृत अभिषक प्रतिदिन होना इष्ट प्रतीत नहीं हुआ। इससे उस प्राचीन अतिमनोज्ञ प्रतिमा का क्षरण होना स्वभाविक है। मंदिर के पुजारी ने भी इसकी पुष्टि की अभिषेकामृत में प्रतिदिन बाल के कण इसका प्रमाण हैं। लेखक के द्वारा अपने साथी विद्वान मित्रों की सहमति से इस तथ्य की ओर वहां उपस्थित क्षेत्र के अध्यक्ष श्री मोतीलाल पाटनी तथा मंत्री श्री वसंतराव अंबुरे की दृष्टि आकृष्ट तथा प्रतिदिन पंचामृत अभिषेक पर रोक लगाने का अनुरोध किया। दोनों महानुभावों ने हमारी भावना से सहमति जताते हुये तत्काल कोई निर्णय लेने में अपनी असहमति जताई। प्रतिदिन अभिषेक की परम्परा भक्तों की भावना से जुड़ी है। उनका कहना था कि 'रोक लगाने अथवा उसमें हमारे सुझाव अनुसार सुधार करने का निर्णय कार्यकारणी कमेटी या महासभा ही कर सकती है। आप लोगों के सुझाव हम क्षेत्र कमेटी की आगामी बैठक में प्रस्तुत कर मूर्ति को होने वाली क्षति का चित्र प्रस्तुत कर देंगे, परन्तु अभी रोक लगाकर विरोधियों का सामना करने का साहस वे नहीं कर सकते।' पंचामृत अभिषेक का प्रचलन पूरे दक्षिण भारत में है। इसका विरोध करना मेरा अभिप्राय नहीं था। जिसकी भावना जिस प्रकार पूजा अर्चा में हो करें, परन्तु प्राचीन मूर्तियों के रक्षण की ओर ध्यान देना भी भक्तों का ही कार्य है। इस ओर हमारे समाज के कर्णधारों को समाज का ध्यान आकृष्ट करना चाहिये। क्योंकि ऐसी विसंगतियाँ अन्य अनेक प्राचीन क्षेत्रों में भक्ति अतिरेक में देखने में आती हैं । पूज्य आर्यनन्दी महाराज का क्षेत्र को अवदान : पूज्य आचार्य तीर्थरक्षाशिरोमणी तिलक 108 आर्यनन्दी महाराज की प्रेरणा से इस अतिशय क्षेत्र का बहुत विकास हुआ है। महाराज की कृपा से इस क्षेत्र पर गुरुकुल स्थापना से समाज के विपन्न वर्ग के छात्रों तथा लातूर भूकम्प से पीड़ित निराश्रित बालकों का बहुत 10 उपकार हुआ है। महाराज श्री द्वारा अनेक स्थानों की दिगम्बर समाज को प्रेरित कर एक अच्छी दान राशि गुरुकुल पोषण हेतु घोषित एवं एकत्रित करायी गई है। क्षेत्र पर छात्रावास एवं साधु मुनियों को रहने, साधना करने, कमरों का निर्माण कराया गया है। गुरुकुल के विद्यार्थियों को लौकिक शिक्षा के साथ जैनागम और सच्चरित्रता का पाठ पढ़ाया जाता है। यह कार्य जीवन्त तीर्थों का निर्माण है। Jain Education International इस प्रकार के जीवन्त तीर्थों की स्थापना तथा पोषण पूज्य आर्यनन्दी महाराज ने एलौरा और कुंथलगिरि गुरुकुलों द्वारा की है। भारतवर्षीय तीर्थरक्षा कमेटी को सन् 1981-82 में लगभग सवा करोड़ राशि का ध्रुव फण्ड बनाकर तीर्थ रक्षण के कार्य में महान् कार्य किया तथा सम्मेद शिखर पर चौपड़ा कुंड मंदिर, मूर्तियाँ स्थापित कराके एतिहासिक कार्य कराये हैं । कुंथलगिरि सिद्ध क्षेत्र पर जलयोजना सफलीभूत कराके महाराज श्री के तीर्थरक्षा के क्षेत्र में अन्य स्वर्णाकिंत करने योग्य अनेक कार्य हैं। ऐसे 'तीर्थरक्षाशिरोमणी तिलक' सार्थक उपाधि के भारक आचार्य आर्यनन्दी महाराज अपनी सल्लेखना के लिये सम्मेद शिखर तीर्थराज से चलकर देवाधिदेव नेमिनाथ की शरण में अपनी चौरानवे वर्ष की वय में नवागढ़ अतिशय क्षेत्र पधारे। नेमिप्रभु भी परम वीतराग छवि उन्हें नवागढ़ अतिशय क्षेत्र ले आयी। ऐसे आचार्य श्री आर्यनन्दी तीर्थ क्षेत्र नवागढ़ तथा तीर्थंकर नेमिनाथ को शत् शत् वंदन.... | पहुँचमार्ग महाराष्ट्र में मनमाड़ से औरंगाबाद, परभणी : तक रेल मार्ग है । परभणी से 18 किलोमीटर श्री नेमिनाथ दि. जैन. अतिशय क्षेत्र नवागढ़ है। परभणी से बसें जाती रहती हैं। अन्य निकट तीर्थ क्षेत्रों में एलौरा, जिन्तूर, अतिशय क्षेत्र कचनेर, पैठण आदि हैं। अतिशय क्षेत्र नवागढ़ से 108 पूज्य आचार्य आर्यनन्दी महाराज की विशाल एवं भव्य समाधि निर्माणाधीन है। कर्मठ कार्यकर्ताओं की देखरेख में द्रुत गति से कार्य चल रहा है क्षेत्राधिकारियों द्वारा समाधि निर्माण कार्य में अपने धन का सदुपयोग करने दि. जैन समाज से अपील पत्रक प्रकाशित किया गया है। 1 इस महान अतिशय क्षेत्र नवागढ़ की वंदना सभी करें तथा मानव जीवन सार्थक बनायें इसी भावना के साथ विराम । पुष्पराज कॉलोनी, सतना (म.प्र.) मूढ़ा शोक महा पट्टे मग्नाः शेषाभपि क्रियाम् । नाशयन्ति तदायत्त जीवितै र्वीक्षिता जनैः ॥ भावार्थ- मोही मनुष्य शोक रूपी महा पंक में निमग्न होकर अपने शेष कार्यों को भी नष्ट कर लेते हैं। मोही मनुष्यों का शोक तब और भी अधिक बढ़ता है जब कि अपने आश्रित मनुष्य उनकी ओर दीनता भरी दृष्टि से देखते हैं । अक्टूबर 2003 जिनभाषित For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36