Book Title: Jinabhashita 2003 10
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 23
________________ निम्नानुसार होगा : इसी प्रकार दूसरी प्रतिमा व्रतप्रतिमा है। इस प्रतिमा के ___'ध्यान करने की कई विधियाँ हैं किन्तु सभी का एकमात्र | अन्तर्गत ५ अणुव्रत, ३ गुणव्रत एवं ४ शिक्षाव्रत, इस प्रकार १२ लक्ष्य है दिमाग को घबराहट एवं चिन्ताजनक विचारों से शून्य | व्रत होते हैं। आचार्य समन्तभद्र ने सामायिक को ४ शिक्षाव्रतों में करके शांत अवस्था प्राप्त करना। से एक शिक्षाव्रत बताया है। परम्परा यह भी है कि अव्रती श्रावकों कई संस्थाएँ एवं समूह ध्यान करना सिखाते हैं किन्तु यह को भी यह प्रेरणा दी जाती है कि चाहे वे व्रती श्रावकों की तरह आवश्यक नहीं है कि आप वहाँ जाकर ध्यान करना सीखें। अधिकांश | नियमित सामायिक न करें किन्तु यथासम्भव सामायिक अवश्य व्यक्ति अपने आप ही ध्यान करना सीख सकते हैं। निम्नांकित | करें। सरल विधि को आप अपना सकते हैं : सामायिक की इस चर्चा का उद्देश्य यह है कि जो सामायिक १. एक शान्त कमरे में आराम से आँख बन्द कर कुर्सी पर | करते हैं या कर रहे हैं उनको सामायिक की विशेषाताएं भलीऐसे बैठो कि पाँव जमीन पर रहे व कमर सीधी रहे। भांति ज्ञात हो सकें ताकि सामायिक में व्यतीत किए गए समय का २. कोई शब्द या मुहावरा ऐसा चुनो जिससे आपको उन्हें पूरा-पूरा लाभ मिल सके। इसके अतिरिक्त इस लेख का भावनात्मक प्रेम या घृणा न हो। आप अपने होंठ हिलाए बिना मन | उद्देश्य यह भी है कि जो सामायिक नहीं कर रहे हैं वे भी पूर्ण रूप ही मन इस शब्द का उच्चारण बार-बार दुहराओ। शब्द पर ही पूरा | से या आंशिक रूप से, अपनी क्षमता एवं परिस्थिति के अनुसार, ध्यान दो, शब्द के अर्थ पर ध्यान नहीं देना है। इस प्रक्रिया को | सामायिक जैसे बहुमूल्य रत्न को अपनाकर अपना आत्मिक एवं करते हुए यदि कोई विचार या दृश्य दिमाग में आए तो सक्रिय | शारीरिक स्वास्थ्य सुधार सकें। होकर उसे भगाने का प्रयास मत करो एवं उस दृश्य या विचार पर | सामायिक प्रक्रिया में निम्नांकित चरण होते हैं : अपना ध्यान भी केन्द्रित करने का प्रयास मत करो। किन्तु बिना १. प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान, आलोचना व समता भाव होंठ हिलाए आप मन ही मन जो शब्द बोल रहे हो उसकी ध्वनि २. वन्दना व स्तवन पर ही अपना ध्यान केन्द्रित करो। ३. कायोत्सर्ग एवं मन्त्र जाप ३. इस प्रक्रिया को प्रतिदिन दो बार ५-५ मिनट तक एक प्रचलित सामायिक पाठ में इन सबका समावेश स्पष्ट दिखाई सप्ताह के लिए या जब तक कि दिमाग को अधिक समय के लिए | देता है। उक्त तीन चरणों में प्रथम दो चरण अन्तिम चरण की प्राप्ति विचार-शून्य करने के लिए प्रवीण न हो जाओ तब तक करो | की तैयारी हेतु हैं। तीसरा चरण यदि बीजारोपण है तो प्रथम एवं तत्पश्चात् ध्यान की अवधि धीरे-धीरे बढ़ाओ। शीघ्र ही देखोगे कि द्वितीय चरण भूमि को नर्म एवं नम बनाने हेतु हैं। सामायिक पाठ आप २०-२० मिनट के लिए ध्यान करने में समर्थ हो गए हो। का मुख्य उद्देश्य प्रथम दो चरणों द्वारा व्यक्ति के तनाव को कम कुछ व्यक्तियों को शब्द के आश्रय के बदले किसी चित्र | करना है। विकल्पों के जाल से बंधा व्यक्ति सीधे कायोत्स्यग एवं या मोमबत्ती आदि वस्तु का आश्रय लेना सरल लगता है। महत्त्वपूर्ण जाप में प्रवेश करने में कठिनाई अनुभव करता है। सामायिक पाठ बात यह है कि इस प्रकार के किसी भी शांत ध्यान से दिमाग को | की निम्नांकित पंक्तियों पर विचार करना उपयोगी होगा। विचारों एवं चिन्ताओं से रिक्त करना।' जो प्रमादवशि विराधे जीव घनेरे। उक्त वर्णन अमरीकन मेडिकल एशोसिएशन ने दिया है। तिनको जो अपराध भयो मेरे अघ ढेरे॥ अन्य कई विशेषज्ञों के वर्णन भी अन्यत्र देखे जा सकते हैं। अब सो सब झूठो होउ जगतपति के परसादै। हम उस विधि की चर्चा करते हैं जो जैन संस्कृति में सामायिक | जा प्रसाद मैं मिलै सर्व सुख दुःख न लाधै। नाम से हजारों वर्षों से प्रचलित है। इन पंक्तियों का सन्देश यही है कि जो कुछ पाप कार्य पूर्व अनुभूति के इस विषय पर लिखा जाना अर्थहीन सा होगा। में किरावे' हो जाबडा अजीब लाता जो कार्य यानी मुनि के दासानुदास की पंक्ति को मेरे जैसा सामान्य गृहस्थ | है. वह तो हो चका है, वह झूठा कैसे होगा? यहाँ जैनदर्शन कहता इस विषय में लिखने में असमर्थ है। अत: गृहस्थों के लिए सामायिक | है कि जो तुझसे हुआ उसमें तू तो निमित्त मात्र था। तू उन किए गः की चर्चा करना ही इस लेख में अभीष्ट है। कार्यों का स्वामी अपने आपको मानता है यह तुम्हारी बड़ी गलती गृहस्थों की ग्यारह प्रतिमाओं में तीसरी सामायिक प्रतिमा | है। पूर्वकत अच्छे कार्य का अहंकार एवं बुरे कार्यों का दर्द इसलिए है कि तू उन कार्यों का कर्ता स्वयं को मान लेता है। कर्ता न बनकर दंसण वयसामाइय पोसह सचित रायभत्ते य। मात्र निमित्त समझ लेने से अहंकार एवं दुःख हल्के हो सकते हैं, बुंभारीपरिग्गह अणमण उद्दिट्ट देसविरदो य॥ अत: ऐसी त्रुटिपूर्ण मान्यता को सामायिक के समय में झूठी भान्यता ( चारित्रपाहुड-२२) | के रूप में स्वीकारना के रूप में स्वीकारना लाभप्रद एवं उचित है। -अक्टूबर 2003 जिनभाषित 21 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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