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है।
धारण करने वाले नाना प्रकार के निगोद आदि स्थावर जीव रहते । शास्त्रों में भी कहा गया है। वह इसप्रकार है- अन्तर्मुहूर्त में जो
केवलज्ञान प्राप्त करते हैं वे क्षीणकषाय गुणस्थानवर्ती 'निर्ग्रन्थ' उपरोक्त प्रमाणों से यह स्पष्ट होता है कि लोक के निचले | नामक ऋषि कहलाते हैं। उन्हें उत्कृष्ट रूप से चौदह पूर्व श्रुतज्ञान एक राजू भाग में पन्चस्थावर पाए जाते हैं। यह पूरा लोक पांच | होता है और जघन्यरूप से पांच समिति और तीन गुप्ति जितना ही प्रकार के एकेन्द्रिय जीवों से भरा पड़ा है, इसका प्रमाण इस प्रकार | श्रुतज्ञान होता है।
जिज्ञासा -छद्मस्थ किसे कहते हैं? सुहम पुढविकाइय सुहुम आउकाइय सुहुमतेउकाइय समाधान- श्री वृहद्रव्य संग्रह में छद्मस्थ शब्द का अर्थ सुहुमवाटकाइय, तस्सेव पज्जत्ता अपज्जत्ता सत्थाणेण समुग्घादेण | इसप्रकार लिखा हैउववादेण केवडिखेत्ते ? सव्वलोगे । (धवला पु. 7)
छद्मशब्देन-ज्ञानदर्शनावरणद्वयं भण्यते, तत्र तिष्ठन्तीति सूक्ष्म पृथिवीकायिक,सूक्ष्मजलकायिक, सूक्ष्म तैजस | छद्मस्थाः कायिक, सूक्ष्मवायुकायिक इनके पर्याप्त और अपर्याप्त जीव जीव | अर्थ- छद्म शब्द से ज्ञानावरण और दर्शनावरण ये दो कहे स्वस्थान समुद्घात और उपपाद से कितने क्षेत्र में रहते हैं ? उक्त जाते हैं, उसमें जो रहते है, वे छद्मस्थ हैं। अर्थात् जब तक जीव सर्वलोक में रहते हैं।
ज्ञानावरण और दर्शनावरण का उदय है, तब तक वे सभी जीव श्री कार्तिकेयानुप्रेक्षा गाथा- 122 में इस प्रकार कहा है- छद्मस्थ कहलाते हैं। एइंदिएहिं भरिदो पंच-पयारेहिं सव्वदोलोओ।
श्री धवला पुस्तक 13, पृष्ठ-44 में छद्मस्थ की परिभाषा अर्थ - सर्वलोक पाँच प्रकार के एकेन्द्रिय जीवों से भरा
कार के एकेन्द्रिय जीवों से भरा | इस प्रकार कही हैहुआ है। कुछ स्वाध्यायी ऐसा मानते हैं कि नीचे के एक राजू भाग । 'संसरन्ति अनेन घातिकर्मकलापेन चतसृषुगतिष्विति में, केवल नित्य निगोदिया जीव ही रहते हैं। उनकी यह धारणा | घतिकर्मकलाप: संसारः । तस्मिन् तिष्ठन्तीति संसारस्था: छद्मस्थः । गलत है। एक राजू भाग में पाचों स्थावर जीव मानना चाहिये। | जिस घातिकर्म समूह के कारण जीव चारों गतियों में
जिज्ञासा - तत्वार्थसूत्र अध्याय-9 के सूत्र नं. 37 'शुक्ले संसरण करते हैं वह घातिकमसमूह संसार है। और इसमें रहने वाले चाद्ये पूर्वविदः' के अनुसार आदि के शुक्ल ध्यान पूर्वविद अर्थात् | जीव संसारस्थ या छगस्थ हैं।' छद्मस्थ चार प्रकर के होते हैंश्रुतकेवलियों के होते हैं । यदि ऐसा माना जाये तो निर्ग्रन्थ मुनियों 1. सम्यक्त्व से रहित छद्मस्थ, जिनके प्रथम, दूसरा और के अष्टप्रवचन मातृ का प्रमाण श्रुत होता है, यह कैसे घटित होगा। तीसरा गुणस्थान होता है। क्योंकि निर्ग्रन्थों के तो आदि के दो शुक्ल ध्यान होते हैं? | 2. सराग छद्मस्थ- जिनके चौथे से दशवाँ गुणस्थान तक
समाधान - सूत्र नं. 37 का अर्थ आपने ठीक ही लिखा है। | होता है। परन्तु यदि इसको उत्कृष्टता की अपेक्षा मान लिया जाये और | 3. वीतराग छद्मस्थ जो ग्यारहवें और बारहवें गुणस्थानवर्ती जघन्य श्रुत अष्टप्रवचन मातृका मान लिया जाये तो सूत्र नं. 47 के | मुनिराज हैं। अनुसार कोई विरोध नहीं रहता। अर्थात् फिर निर्ग्रन्थों के शुक्ल 4. कृतकृत्य छद्मस्थ - बारहवें गुणस्थानवर्ती मुनिराज के ध्यान की अवस्था में जघन्य श्रुत अष्टप्रवचनमातृका प्रमाण अविरोध अन्तिम काण्डक के पतित होने पर, उनको कृतकृत्य छदमस्थ कहा को प्राप्त होता है। वास्तविकता भी यही है। सूत्र नं. 47 की टीका | जाता है। जैसा कि श्री क्षपणासार में कहा हैमें इस प्रकार कहा है
चरिमेखंडेपडिदे,कदकरणिज्जोत्तिभण्णदेऐसा ।।212।। 'दश तथा चौदह पूर्व के श्रुतज्ञान से ध्यान होता है वह भी | जिज्ञासा- तीर्थंकर प्रकृति का बंध केवली के पादमूल में उत्सर्ग वचन है। अपवाद व्याख्यान से तो पांच समिति और तीन | ही होता है या श्रुतकेवली के पादमूल में भी? गुप्ति के प्रतिपादक सारभूत श्रुतज्ञान से भी ध्यान होता है और समाधान - तीर्थंकर प्रकृति का बंध केवली के पादमूल में केवलज्ञान भी होता है । यदि ऐसा अपवाद व्याख्यान न हो तो 'तुष- | ही होता है, जिसके आगम प्रमाण इसप्रकार हैंमाप का उच्चारण करते हुए श्री शिवभूति मुनि केवलज्ञानी हो गये' तत्थ मणुस्सगदीए चेव तित्थयरकम्मस्स बंध पारंभो होदि, इत्यादि गन्धर्वाराधनादि ग्रन्थों में कहा गया व्याख्यान किस प्रकार | ण अण्णत्थेत्ति। ......... घटित होता है?'
के वलणाणोबलक्खियजीवदव्वसह कारिकारणस्स प्रश्न - श्री शिवभूति मुनि पांच समिति और तीन गुप्तियों | तित्थयरणामकम्मबंधपारंभस्स तेण विणा समुप्पत्ति विरोहादो। का प्रतिपादन करने वाले द्रव्यश्रुत को जानते थे और भावश्रुत उन्हें । अर्थ- मनुष्य गति में ही तीर्थंकर कर्म के बन्ध का प्रारम्भ पूर्णरूप से था?
होता है, अन्यत्र नहीं ....... क्योंकि अन्य गतियों में उसके बन्ध का उत्तर- ऐसा नहीं कहना चाहिए, क्योंकि यदि ये पांच प्रारम्भ नहीं होता, कारण कि तीर्थंकर नामकर्म के बन्ध के प्रारम्भ समिति और तीन गुप्ति के प्रतिपादक द्रव्यश्रुत को जानते होते तो का सहकारी केवलज्ञान से उपलक्षित जीवद्रव्य है, अतएव, मनुष्यगति 'द्वेष न कर, राग न कर' इस एक पद को क्यों नहीं जानते ? अतः के बिना उसके बन्ध प्रारम्भ की उत्पत्ति का विरोध है। ज्ञात होता है कि उनको पांच समिति और तीन गुप्ति रुप आठ प्रवचन | गो.क./जी.प्र./93/78/7 मातृका प्रमाण ही भाव श्रुत ज्ञान था और द्रव्य श्रुत कुछ भी नहीं था।
1/205, प्रोफेसर कॉलोनी, यह व्याख्यान हमने कल्पित नहीं किया है, वह चारित्रसार आदि
आगरा - 282 002 26 अक्टूबर 2003 जिनभाषित
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