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शब्दार्थ की अपेक्षा भावार्थ महत्त्वपूर्ण
RANAS
आ. श्री विद्यासागर जी अन्तरंग की तंरग से बाह्य आकृति तरंगित हो जाती है, अमरकण्टक के अरण्य में तपोनिधि ज्ञाननिधि आचार्य विद्यासागरजी ने कहा कि शाब्दिक अर्थ की अपेक्षा भावार्थ महत्वपूर्ण होता है। भोजन पानी छूटते ही सभी सम्बन्ध भी छूट जाते हैं यह स्मरण कराते हुए आचार्य श्री ने कहा कि संध्या में रैन बसेरा पर मिले पक्षी भोर होते ही भिन्न-भिन्न दिशाओं में उड़ जाते हैं, कोई किसी के लिए नहीं रुकता, कोई किसी का साथी भी नहीं।
मेकल के आंचल में अठखेलियाँ करते बादलों की मनोरम छटा में भारत के भिन्न-भिन्न भागों से आए श्रोताओं को प्रकृति की प्रतीति कराते हुए आचार्य विद्यासागरजी ने कहा कि वज्रमय बलशाली, साहसी, शूरवीर जिनका शरीर बाणों से विंध जाता है, छेदन भेदन की पीड़ा का भी प्रभाव नहीं होता, करुणा, दया, शोक और वियोग के भाव भीतर होने पर नयन सजल हो जाते है, अंदर के भाव का प्रभाव बाहर दिखने लगता है। कठोर पराक्रमी भी पिघल जाते हैं, शरीर नहीं पिघला फिर आँखों में पानी कहाँ से आया? क्यों आया? अन्दर अनुभूति होती है पानी बाहर बहने लगता है। आचार्य श्री ने बताया कि धर्म के प्रदर्शन की कोई आवश्यकता नहीं है। दर्शन की आवश्यकता है. विश्वास की आवश्यकता है, किन्त मनष्य विचार अधिक करता है. विश्वास कम करता है। भय का भाव भी मनुष्यों में अधिक होता है, निर्भय होने के लिए हाथ में डंडा लेते हैं, संसार में अन्य कोई प्राणी हाथ में डंडा नहीं पकड़ता। सहारे की तलाश और मांगने की क्रिया केवल मनुष्य करता है, क्योंकि वह विचार अधिक करता है, विश्वास कम। विश्वास कम है इसीलिए भ्रान्ति अधिक है यह बताते हुए आचार्य श्री ने कहा कि जहाँ भ्रान्ति हो वहां शांति की तो बात ही नहीं। एक प्राचीन घटना का उदाहरण देते हुए आचार्य श्री ने बताया कि यदि पशु को कोई प्रतीक समझ में आ जाता है तो वह उस पर विचार नहीं करता संकल्प ले लेता है। मृगेन्द्र का जीवन जितना लम्बा होगा मृग के जीवन पर संकट भी उतना अधिक होता है । मृगेन्द्र अपने जीवन के लिए मृग का जीवन समाप्त करता है। सिंह के दिखते ही नाड़ी की गति बदल जाती है, ठंड में भी कंठ सूख जाते हैं। इसके एक प्रहार से ही अंदर बाहर का अस्तित्व मिट जाएगा। सिंह के भोजन का अर्थ है एक जीवन का अन्त । ऐसे दयाहीन पशु को संयोग वश करुणा वान जीवन का सान्निध्य मिल जाता है। करुणा के सान्निध्य में सिंह के भाव में परिवर्तन हो जाता है। दया के भाव से कुछ दिवस सूखी घास पत्ती से जीवन यापन किया किन्तु सिंह का आहार घास नहीं था। करुणा के सान्निध्य का प्रभाव मांसाहार नहीं किया एवं संकल्पपूर्वक प्राण त्याग दिये। प्रत्येक बार एक जीवन को समाप्त करने वाले पशु ने अपना जीवन दांव पर लगा दिया। पशु की प्रकृति विचार करने की नहीं होती। आचार्य श्री ने बताया कि पशु का यह उदाहरण भी पतित पावन बनने के लिये दर्पण हो सकता है रिश्ते नातों का सम्बन्ध तब तक होता है जब तक भोजन पानी से सम्बन्ध होता है। भोजन पानी से सम्बन्ध छूटते ही संसार के सभी सम्बधी सम्बन्ध तोड़ लेते हैं। आचार्य श्री ने कहा कि किससे था सम्बन्ध भोजन पानी से?
शाब्दिक अर्थ की अपेक्षा भावार्थ को महत्वपूर्ण बताते हुए कहा कि शब्द का प्रभाव इस पर निर्भर करता है कि उसका प्रयोग किस भाव के साथ किया गया है। एक शब्द का भिन्न-भिन्न भाव के साथ प्रयोग करने पर अर्थ भी भिन्न-भिन्न हो जाता है। राजस्थान के मड़ना ग्राम में आचार्य ज्ञान सागर महाराज के प्रवचन सुनने के लिए श्रोताओं की भीड़ लगी थी। अजमेर से आए एक महाशय ने महाराज से कहा मेरा आदेश है महाराज अजमेर पधारें। यह सुनते ही सभा दंग रह गयी किन्तु महाराज भाव विभोर हो गये क्योंकि उपरोक्त शब्दों का प्रयोग करते समय श्रावक के हाथ निवेदन की मुद्रा में जुड़े हुए थे एवं मस्तक आदर के भाव सहित झुका हुआ था। सभा में श्रावक के उपरोक्त शब्दों का अर्थ आदेशात्मक था किन्तु भाव अनुरोध युक्त। भाव और मुद्रा के कारण दर्शकों को अनुरोध की ही अनुभूति हुई। भावों के महत्व का बोध कराते हुए आचार्य श्री ने कहा कि दीवाली पर दीवाल की स्वच्छता की जाती है। अंधकार को दूर करने के लिए प्रकाश का प्रयोग करते है, किन्तु अंदर अंधकार हो तो बाहर दीवाली की क्या सार्थकता है। सबकी आत्मा को समान बताते हुए आचार्य श्री ने कहा कि मनुष्य का सुधरना ही स्वर्ग अवतरण है तथा यही रामराज्य है। जब जागो तभी सबेरा की उक्ति के माध्यम से आचार्य श्री ने बताया कि अहिंसा करुणा दया के भाव से सुधार संभव है। संयम का पालन मनुष्य तो क्या पशु भी कर सकते हैं। बाह्य रुप संवरने में काल बीत गया आत्मा को संवारने का संकल्प ले सकते हैं । विचार की प्रवृत्ति से मुक्ति पाकर विश्वास को आत्मसात करने से भ्रान्ति मिट सकती है।
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