Book Title: Jinabhashita 2003 10
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 29
________________ बोध कथा सबसे बड़े मूर्ख की खोज एक राज्य था सोनपुर। वहां का राजा सत्य सिंह बूढ़ा हो चला था। उसकी मृत्यु के दिन निकट थे। अपनी मृत्यु के दिन निकट देखते हुए उसने अपने बेटे अवध सिंह को राजा बना दिया। कुछ दिन बाद उसने दरबार में घोषणा करवायी 'जो व्यक्ति राज्य के सबसे बड़े मूर्ख को हमारे सामने लायेगा उसे मुंहमांगा इनाम दिया जायेगा। राज्य का कोई भी व्यक्ति इसके लिए प्रयास कर सकता है।' बस फिर क्या था ? पूरे राज्य में हलचल मच गयी। अपना काम छोड़ मूर्खों की तलाश में निकल पड़े। कुछ लोग अपने साथ मूर्खों को लेकर दरबार में आये। मूर्खों की मूर्खतापूर्ण कारनामे और हरकतों पर राजा खूब हंसता, परन्तु बाद में लोगों को यह कहकर भगा देता - 'यह तो सामान्य सी मूर्खता है। मुझे तो राज्य के सबसे बड़े मुर्ख को तलाश है।' अब महीना बीत गया। इस कारण राज्य की स्थिति चौपट होने लगी। अभी तक राजा सबसे बड़े मूर्ख की तलाश में था। एक दिन एक बेहद गरीब किसान राजा के समक्ष प्रस्तुत हुआ। राजा उसके फटे कपड़ों पर नजर डालते हुए बोला- 'क्या तुमने उस मूर्ख को खोज लिया है ?' आत्मविश्वास के साथ वह किसान बोला 'हां राजन! पर शर्त यह है कि उसके कारनामे सुनने के पश्चात् ही आप कोई निर्णय लेंगे।' राजा मान गया और बोला- 'ठीक है, वताओ वह मूर्ख कौन है ?' तनिक सुस्ताते हुए किसान बोला'राज्य के सबसे बड़े मूर्ख आप स्वयं हैं राजन!' राजा क्रोध से लाल हो गया फिर भी चुप बैठा रहा। किसान कहता गया'राजन्! आप हमारे रक्षक हैं। हमारी रक्षा करना आपका कर्तव्य है, फिर भी आप राज-काज भूलकर उटपटांग बातों में अपने को उलझाये हुए हैं। लोगों की उल्टी सीधी बातों को सुनकर यहां बैठे-बैठे हंस रहे हैं। उधर राज्य की फसलें सूख रही हैं। चोर नित्य मकानों में सेंध लगा रहे हैं। पड़ोसी राज्य हम पर हमला करना चाहते हैं। क्या यही कारनामे आपको सबसे बड़ा मूर्ख घोषित नहीं करते ?" - राजा की आंखें शर्म से झुक गयीं। किसान की बातों में दम था। गंभीर होकर वह बोला 'हां, असल में सबसे बड़ा मूर्ख | Jain Education International तो मैं स्वयं ही हूँ।' उसने किसान को कुछ देना चहा, परन्तु गरीब किसान ने नहीं लिया। उस दिन के पश्चात् राजा ने फिर अपना ध्यान अपने राज-काज में लगा दिया। सन्मार्ग : बी. एन. राय माया का बंधन एक बार एक महात्मा अपने शिष्य के साथ कहीं जा रहे थे। चलते-चलते सत्संग की बातें भी हो रही थीं। कुछ दूरी पर एक ग्वाला अपनी भैंस को रस्सी से बांधकर कहीं ले जा रहा था। भैंस जाना नहीं चाह रही थी, पर रस्सी से बंधी होने के कारण वह बेबस थी। भैंस की दशा देखकर शिष्य को दया आ गयी। 'महात्मा उस भैंस का क्या कसूर है जो कि उसे बंधन में रहना पड़ रहा है ?' शिष्य ने आतुर होकर पूछा । शिष्य को चिंतित देख महात्मा मुस्कुरा उठे। शिष्य को महात्मा के इस व्यवहार पर बहुत आश्चर्य हुआ । 'महात्मन, आप मुस्कुरा रहे हैं ? क्या आपको भैंस पर दया नहीं आ रही है ?" 'मुझे तो भैंस से ज्यादा ग्वाले पर तरस आ रहा है। भैंस तो बाह्य बंधन में बंधी हुई है, पर वह ग्वाला तो माया के बंधन में जकड़ा हुआ है। बाह्य बंधन से तो कभी भी मुक्ति मिल सकती है, पर मन के बंधन से मुक्त होना असंभव है। यथार्थ में भैंस नहीं, बल्कि ग्वाला ही बंधन में जकड़ा हुआ है।' महात्मा ने शिष्य को समझाया। शिष्य को महात्मा की बातों का यकीन नहीं हुआ। कुछ ही देर बाद भैंस ने जोर लगाकर रस्सी तोड़ दी। रस्सी टूटते ही भैंस भागने लगी। ग्वाला भैंस को पकड़ने के लिए उसके पीछे-पीछे भागने लगा। आगे-आगे भैंस भाग रही थी और पीछे-पीछे ग्वाला। महात्मा ने शिष्य को दिखलाते हुए कहा 'देखो, अब कौन असली बंधन में है भैंस, या ग्वाला ? ग्वाले की गर्दन में माया की रस्सी बंधी हुई है। यही कारण है कि वह भैंस के पीछे भागे जा रहा है। भैंस तो बंधन से मुक्त हो गयी, पर ग्वाला तो जीवन भर इस बंधन से मुक्त नहीं हो पायेगा। महात्मा की बातें सुनकर शिष्य की आँखें खुल गयीं। वह समझ गया कि माया का बंधन ही असली बंधन है।' सन्मार्ग: पंकज राय सदस्यों से विनम्र निवेदन अपना वर्तमान पता 'पिन कोड' सहित स्वच्छ लिपि में निम्नलिखित पते पर भेजने का कष्ट करें, ताकि आपको "जिनभाषित " पत्रिका नियमित रूप से ठीक समय पर पहुँच सके । For Private & Personal Use Only सर्वोदय जैन विद्यापीठ 1/205, प्रोफेसर्स कॉलोनी हरीपर्वत, आगरा (उ.प्र.) futants - 282 002 •अक्टूबर 2003 जिनभाषित 27 www.jainelibrary.org

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