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पारसमणि वाले नेमिप्रभु अतिशय क्षेत्र नवागढ़ (महाराष्ट्र )
सुमत चन्द्र दिवाकर करते, नदी तक गिरते उठते किसी प्रकार पहुँच गये। वर्तमान क्षेत्र के मंत्री तथा अध्यक्ष के सौजन्य से एक जानकार व्यक्ति मार्ग बताने वाला साथ था। मित्रों में डॉ. हुकुमचन्द संगवे सोलापुर, श्री पं. मनोहर मारवाड़कर नागपुर, पं. बाहुबली ढोकर कोविद पूना, श्री पं. लालचन्द मानवत परभणी सह भ्रमणार्थी थे ।
वर्तमान में ध्वंस मंदिर के टीले पर किसी ने एक त्रिशूल गाड़ दिया है तथा एक पत्थर पर सिन्दूर पोतकर उसे मूर्ति के रूप में स्थापित कर दिया है। उस निर्जन स्थान में किसी के रहने के कोई चिन्ह नहीं हैं। आसपास भी कोई मानव वहां विचरता नहीं देखा गया। वर्तमानक्षेत्र से यह स्थान लगभग चार पांच किलोमीटर उत्तर दिशा में है। जंगल के रास्ते में कुछ खेत अवश्य हैं। हम सभी मात्रं जिज्ञासु थे। पुरातत्व विभ कोई नहीं था। प्राचीन मंदिर के अवशेष संरक्षण का महत्व संभवतः वर्तमान क्षेत्राधिकारियों को नहीं है क्योंकि वे वर्तमान क्षेत्र के वृहद विकास में व्यस्त हैं। इसीलिये वह टीला अरक्षित है। प्राचीन तीर्थ जीर्णोद्धार महासभा वाले अथवा पुरातत्व वाले ही उसका उद्धार अथवा संरक्षण कर सकते हैं।
पवित्र पूर्णा नदी के तट पर उखलद ग्राम (परभणी) के पास विशाल प्राचीन दिगम्बर जैन मंदिर था, जिसमें अति मनोज्ञ मनोहारी अनेक जिन विम्ब विराजित थे। मूलनायक पद्मासन काले पाषाण के नेमि प्रभु के दायें पैर के अंगूठे में पारसमणी जड़ी हुई थी, ऐसी किंवदंती है। पारसमणी का विलोप होना । प्राकृतिक प्रकोप से प्राचीन मंदिर का ध्वंस होना, मूर्तियों को बचा लिया जाना तथा नये अतिशय क्षेत्र का विकसित होना । पूज्य आचार्य तीर्थरक्षा शिरोमणी आर्यनन्दी महाराज का क्षेत्र को अवदान, गुरुकुल की स्थापना और उनकी समाधि क्षेत्र पर होना । पारसमणी का नेमीप्रभु के पद से निकल कर नदी में समाने की कथा आदि अनेक घटनाओं का प्रस्तुतीकरण इस आलेख का उद्देश्य है।
क्षेत्र का गौरवमय इतिहास : नदी तट पर स्थित होने के कारण प्राचीन मंदिर की शोभा, श्री सम्पन्नता, सुन्दरता, चाँदनी रातों में लोक का मन मोह लेती थी। मंदिर की परछाईयाँ पूर्णानदी के शान्त कदाचित समीर से हिलौर लेते जल में ऐसी प्रतीत होती र्थी मानो मंदिर नदी के जल पर तैर रहा है। मंदिर के घण्टे घंटियों की मधुर ध्वनियाँ नीरव वनप्रान्तर में गुंजित होती हुई, अंचल के ग्रामवासियों को निरन्तर अपने इष्टदेव देवाधिदेव नेमिप्रभु की मनोहारी छवि का स्मरण कराती रहती थीं। मूलनायक नेमी प्रभु के अतिशय से पूरा अंचल कृतार्थ था । यहाँ पूरा प्रदेश निजाम राज्य की सीमा के अन्तर्गत था। मंदिर का संरक्षण भी निजाम शासक का दायित्व था, परन्तु प्राकृतिक प्रकोप पर किसी का वश नहीं होता। जो पूर्णा नदी मंदिर की प्राकृतिक शोभा का कारण थी, वह अतिवृष्टि के कारण पागलपन की सीमा तक अपने उच्च कूलों का मानमर्दन करने उतावली हो उठी। किनारे पर स्थित पाषाण निर्मित मंदिर भी हिल गया । स्थिति को भांपते हुये भक्तों द्वारा मूर्तियाँ अन्यत्र सुरक्षित कर ली गईं, परन्तु मंदिर ढह गया। मंदिर का बहुत सा भाग पूर्णा नदी के पागलपन युक्त बहाव ने समेट लिया ।
आज भी मंदिर के ध्वंसावशेष पूर्णा नदी के उच्च तट पर एक टीले के रूप में विद्यमान हैं। टीले के आसपास विखरीं अनेक विशाल शिलायें प्राचीन मंदिर की कहानी कह रही हैं। हमारी जिज्ञासा विगत् वर्ष के अन्तिम माह में अपने कुछ मित्रों के साथ पूर्णा नदी के तट ले गई। मार्ग अत्यंत ऊबड़ खाबड़ और झाड़ झंकाड़ों से भरा हुआ है। पगडंडियों के सहारे घास का मैदान पार
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अक्टूबर 2003 जिनभाषित
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मूल नायक नेमिनाथ की मूर्ति तथा पारसमणी: कवि ब्रह्मज्ञानसागर ने नेमिप्रभु की प्रतिमा का गुणगान करते हुये सर्वतीर्थ वंदना में इस प्रकार कहा है
'पूर्णा नाम पवित्र नदी तस तीर विसालह । नामे ग्राम उखलद जिंहा जिननेमि दयालह ॥ सार पार्श्व पाषाण कर अंगूठे जाणो । अगणित महिमा जास त्रिभुवन मध्य वखाणो। प्रगट तीर्थ जाणी करी भविकलोक आवे सदा । ब्रह्मज्ञानसागर वदति लक्ष लाभ पावे सदा ॥ ' साभार ( भा.दि. जैन तीर्थ महा स. प्रकाशन) निजाम शासन काल के समय से चली आ रही किंवदन्ती के आधार पर मूलनायक नेमिनाथ भगवान के दायें पैर के अंगूठे में पारसमणी जड़ी हुई थी। इस रहस्य को एक मात्र मंदिर के वृद्ध पुजारी ही जानते थे। पुजारी महाराज अपने पूरे जीवन भर सुई के वजन का सोना मणी के स्पर्श से बनाकर अपना और अपने परिवार का भरण पोषण करते रहे। कभी भी उन्होंने लोभवश सीमा का अतिक्रमण नहीं किया। अपने निमित्त ज्ञान से अपनी मृत्यु निकट जान कर उन्हें परिवार के आगे गुजारे की चिन्ता ने
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