Book Title: Jinabhashita 2003 10
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 19
________________ (ब) तदनन्तर इन्द्र आदि देवताओं ने भी यह विचार | हो जावें। बहुत से रत्नों के स्वामी, मन चाहे मित्र इनके साथ मैं किया कि जीव समूह को रोकने वाले अशेष समस्त बन्धनों में प्रेम | घूमूंगी, वन्दना करूँगी तथा अपना सुख दुख बताऊंगी। यह सोचकर का बन्धन ही सबसे मजबूत होता है । इसीलिए राम भी मनुष्य के | वह इन्द्र कोटिशिला पर ध्यान में लीन राम के पास आया तथा मेरे भोगों में पड़कर अपने आपको भूल गये हैं। तभी देवों ने राम के | यौवन को मान दो आदि कहकर रिझाने लगा। किन्तु राघव मुनिवर मोह को दूर करने का उपाय सोचा। सोचे गये उपायानुसार सूखा | का मन नहीं डिगा। राम के कहा- हे इन्द्र ! तुम राग को छोड़ो। वृक्ष बनाकर उसे सींचना, चट्टान पर हल चलाकर बीज बिखेरना, | जिन भगवान ने जिस मोक्ष का प्रतिपादन किया है वह विरक्त को पत्थर पर कमल के फूल के समूह को उगाना तथा एक मृत योद्धा | ही होता है। सरागी व्यक्ति का कर्म बन्ध और भी पक्का होता है। के शरीर को कन्धे पर उठाकर लाना आदि विरोधी क्रियाएँ करना | उपदेश सुनने से पवित्र मन सीतेन्द्र ने मुनीन्द्र राम की वन्दना की। उन्होंने प्रारम्भ किया। माघ माह के शुक्ल पक्ष में बारहवीं की रात के चौथे प्रहर तभी मृत योद्धा के शरीर को कन्धे पर उठाकर लाया जाने | में श्रीराम ने चार घातिया कर्मों का नाश कर परम उज्ज्वल ज्ञान पर राम ने पूछा- तुम किसलिये इस मनुष्य को ढो रहे हो? इस पर देव ने भी कहा- मुझसे क्या पूछते हो, अपने आपको क्यों नहीं इस तरह स्वयंभूदेव ने अपने काव्य पउमचरिउ की राम देखते, हम दोनों ही महामोह से उदभ्रान्त होकर दुनियाँ में घूम रहे | कथा में श्रीराम व सीतादेवी के कथानक के माध्यम से व्यक्ति की हैं। बस तभी राम बहुत लज्जित हुए, सहसा उनकी आँखें खुल | 'व्यष्टि से लेकर परमेष्ठी' तक की यात्रा के चित्रण को और रागगयी और मोह ढीला पड़ गया। लक्ष्मण का दाह संस्कार कर मोह | द्वेष रूपी आसक्ति व कषाय तथा क्षमा भाव को एक प्रयोगात्मक से दूर, गुणभरित और प्रबुद्ध राम ने सुब्रत मुनि के पास दीक्षा | रूप देकर बहुत ही सरस एवं सहज रूप में अभिव्यक्त किया है। ग्रहण कर ली। अतः परम पद प्राप्त करने के इच्छुक सभी भव्यजनों के सीतादेवी ने भी 62 साल तक घोर तप कर अन्त में 33 | लिये रागद्वेष रूप आसक्ति व कषाय को क्षमा भाव से जीतने का दिन की समाधि लगाकर इन्द्र का पद पाया। सत्य व सुगम मार्ग बताकर कवि ने सभी के लिये बहुत ही इस तरह परमवीर श्रीराम ने क्षमा भाव धारण कर अपनी | उपकार किया है। कलुष पौरुष वृत्ति पर तथा सम्यग्ज्ञान प्राप्त कर राग रूप मोह वृत्ति पर विजय प्राप्त कर ली। | 1. स्वयंभू : पउमचरिउ, (सम्पादनः डॉ. एस.सी. भायाणी,) (स) ध्यान में लीन निश्चल राम- महामुनि श्रीराम जो अब स्नेह विहीन थे 'सो राम-महारिसि विगय णेहु' ने कठोर तप अनुवादकः डॉ. देवेन्द्र कुमार जैन प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ, अंगीकार कर अनेक व्रतों को धारण कर घोर तपश्चरण किया वाराणसी, 1970 फिर कोटि शिला पर चढ़कर ध्यान में लीन हो गये। तभी अच्युत स्वर्ग में सीतादेवी के जीव इन्द्र ने सोचा कि क्षपक श्रेणी में स्थित अपभ्रंश साहित्य अकादमी दिगम्बर जैन नसियाँ भट्ठारकजी, इनके ध्यान को किस प्रकार विचलित करूँ जिससे उनको उज्जवल सवाई रामसिंह रोड, धवल केवलज्ञान उत्पन्न न हो और वे भी वैमानिक स्वर्ग के इन्द्र जयपुर - 302 004 सन्दर्भ अखिल - समर्पण पर बीज ने कहा अवनी से, अखिल समर्पण, अंक चाहिये। अवनी बोली, आ जाओ, हे नव अंकुर। विश्वास नहीं मिटने दूंगी, गलूंगी, तपूंगी, दमन भी सह लूंगी, अंक नहीं हटने दूंगी। श्रद्धेय पर, आस्था और समर्पण का प्रतिफल, एक विशाल वृक्ष। राहुल मोदी, मुंगावली -अक्टूबर 2003 जिनभाषित 17 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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