Book Title: Jinabhashita 2003 05
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 6
________________ "जिनेन्द्राणां गुह्यप्रदेशो वस्त्रेणेव शुभप्रभामण्डलेनाच्छादितो न चर्मचक्षुषां दृग्गोचरीभवति।.... स्त्र्यादीनां तद्रूपदर्शनानन्तरं मोहोदयहेतुत्वाभावः। ..... जुगुप्सनीयावाच्यावयवादिदर्शनं, तच्च तीर्थकृतां न सम्भवति।" (प्रवचनपरीक्षा, पूर्वभाग, गाथा ३१ की टीका) उपाध्याय जी का कथन है कि इसी कारण ऊर्जयन्त गिरि (गिरनार पर्वत) के स्वामित्व को लेकर श्वेताम्बरों और दिगम्बरों में जो विवाद हुआ था, उसके पूर्व बनाई जाने वाली जिनप्रतिमाएँ न नग्न होती थी, न अञ्चलिकायुक्त (वस्त्रपट्टिकायुक्त)। इसलिए उस समय तक दिगम्बरों और श्वेताम्बरों की जिनप्रतिमाओं में भेद नहीं था, दोनों की जिनप्रतिमाओं का आकार एक जैसा था "विवादात्पूर्वकालं जिनप्रतिमानां नैव नग्नत्वं, नापि च पल्लवकः अञ्चलचिन्हं तेन कारणेन आकारेण जिनप्रतिमानामुभयेषां श्वेताम्बर-दिगम्बराणां भेदो भिन्नत्वं नासीत्, सदृश आकार आसीदिति।" (प्रवचनपरीक्षा, पूर्वभाग, गाथा ७० की टीका) किन्तु विवाद के पश्चात् श्वेताम्बर अपनी जिनप्रतिमाओं पर पल्लवचिह्न (वस्त्रपट्टिका का आकार) बनाने लगे, तब दिगम्बरों ने प्रतिक्रिया-स्वरूप उन्हें नग्न बनाना शुरु कर दिया। चूँकि श्वेताम्बर मुनि स्वयं वस्त्रधारी होते हैं, इसलिए उन्होंने प्रतिमाओं पर वस्त्र का चिन्ह बनाया और दिगम्बर मुनि स्वयं नग्न होते हैं, इसलिए उन्होंने प्रतिमाओं का नग्नरूप में निर्माण कराया "अहोऽस्मन्निश्रितप्रतिमाकारतो भिन्नाकारकरणाय यदि श्रीसङ्ग्रेन पल्लवचिह्नमकारि, करिष्यामस्तर्हि वयमपि श्वेताम्बरप्रतिमातो भिन्नत्वकरणाय किञ्चिच्चिह्नमिति विचिन्त्य मत्सरभावेन जिनप्रतिमानां नग्नत्वं विहितं । श्वेताम्बरेण स्वयं वस्त्रधारित्वात् वस्त्रं चिह्नं कृतं, दिगम्बरेण स्वयं नग्नत्वात् नग्नत्वमेव।" (प्रवचनपरीक्षा, पूर्वभाग, गाथा ६८ की टीका) 'प्रवचनपरीक्षा ग्रन्थ के लेखक उपाध्याय धर्मसागर जी ईसा की १७ वीं शताब्दी में हुए थे। इससे सिद्ध है कि उनके समय तक श्वेताम्बर परम्परा में नग्न जिनप्रतिमाओं का निर्माण नहीं होता था। उनका यह कथन प्रामाणिक इसलिए है कि उनके पूर्ववर्ती किसी भी श्वेताम्बर ग्रन्थकार ने इसके विरुद्ध कथन नहीं किया। किसी ने भी यह नहीं लिखा कि श्वेताम्बर परम्परा की जिनप्रतिमाएँ नग्न होती हैं। उत्तरवर्ती श्वेताम्बराचार्यों ने प्रवचन-परीक्षाकार का ही मत स्वीकार किया है। बीसवीं शती ई. के आरंभ में हुए श्वेताम्बराचार्य श्री आत्माराम जी ने अपने 'तत्त्वनिर्णयप्रासाद' नामक ग्रन्थ में लिखा है कि तीर्थंकरों की नग्नता तो उनके अतिशय के प्रभाव से दृष्टिगोचर नहीं होती, अत: उनकी प्रतिमाएँ नग्न हों तो जिनबिम्ब कैसे कहला सकती हैं? (पृष्ठ ५८७) प्राचीन और अर्वाचीन श्वेताम्बराचार्यों के ये कथन इस बात के प्रमाण हैं कि श्वेताम्बर आम्नाय में तीर्थंकरों की नग्न प्रतिमाएँ जिनबिम्ब नहीं मानी जा सकतीं, अत: वे उनके लिए पूज्य भी नहीं होतीं। इसीलिए उनके सम्प्रदाय में नग्न जिनप्रतिमाओं का निर्माण कभी भी नहीं हुआ। यदि प्रतिमा-विवाद के समय हम इन ग्रन्थों के उपर्युक्त उद्धरण न्यायालय में रखें, तो श्वेताम्बर ग्रन्थों से ही श्वेताम्बर बन्धुओं का यह कथन असत्य सिद्ध हो जायेगा कि वे नग्न जिनप्रतिमाओं को भी पूजते हैं। सुप्रसिद्ध इतिहासकार श्वेताम्बराचार्य श्री हस्तीमल जी ने तो यहाँ तक कहा है कि पाँचवीं शती ई. तक जैन संघ में मूर्तिपूजा एवं मंदिर-निर्माण का प्रचलन ही नहीं हुआ था। उनके निम्नलिखित वक्तव्य द्रष्टव्य हैं १. "जैनधर्म अथवा आगम सम्बन्धी निर्माणोत्तरकालीन प्रमुख ऐतिहासिक घटनाओं पर भी यदि निष्पक्षरूपेण दृष्टिपात किया जाय, तो यही तथ्य प्रकाश में आता है कि पहली आगम-वाचना के समय से लेकर चौथी आगमवाचना (वलभीवाचना ई. सन् ४५३-४६७) तक की कालावधि में आगमानुसार विशुद्ध श्रमणाचार, श्रावकाचार एवं धर्म के मूल अध्यात्मप्रधान स्वरूप का पालन करने वाले जैन संघ में मूर्तिपूजा एवं मंदिरादि के निर्माण का प्रचलन नहीं हुआ था।" (जैन धर्म का मौलिक इतिहास, भाग २, पृष्ठ २३०) २. "महान् प्रभावक आचार्य स्कन्दिल लगभग वीर नि. सं. ८३० से ८४० तक, लगभग १० वर्ष तक मथुरा में रहे, 4 मई 2003 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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