Book Title: Jinabhashita 2003 05
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 18
________________ मानस कब-कबे है होनें डॉ. मुन्नीपुष्पा जैन मनुष्य जन्म अत्यन्त दुर्लभ है। देवता भी इस मनुष्य जन्म मानस कब-कबे है होने, रजउ बोल लों नोंने के लिए तरसते हैं। न जाने कितने जन्मों के पुण्य-प्रताप से हम चलती बेरां प्रान छोड़ दये, कीके संगे कोनें सभी को यह मनुष्य भव प्राप्त होता है। मनुष्य जन्म की दुर्लभता जिअत-जिअत को सब कोउ सबको, मरे घरी मररोने का वर्णन न सिर्फ जैन शास्त्र करते हैं वरन् वैदिक एवं बौद्ध हो जे और जन्म की बातें, पाओ न ऐसी जीने परम्परा के शास्त्रों में भी मनुष्य जन्म को ही श्रेष्ठ माना है। मनुष्य हंडिया हात परत नईं 'ईसुर' आबे सीत टटोने योनि प्राप्त किये बिना हम इस संसार चक्र से मुक्त नहीं हो सकते। मनुष्य योनि कभी-कभी ही मिलती है और दूसरी बात इसी अवस्था में मनुष्य अपने स्वरूप को पहचान कर अपने कोई कितना ही प्रिय क्यों न हो, किसी के साथ, अन्य ने अपने निजानन्द परमात्मा को प्राप्त कर सकता है। प्राण नहीं त्यागे हैं। जीते जी के सभी संगी सम्बन्धी हैं मरने पर कुछ समय रोकर, कुछ समय बाद ही उन्हें लगता है जैसे किसी बुन्देलखण्ड की धरती पर अनेक कवि हुये, जिन्होंने पिछले जन्म की बात हो? अर्थात् कोई अमुक व्यक्ति ऐसा था, बुन्देली लोक भाषा में काव्य का सृजन कर जनमानस में नैतिक मात्र कहानी रह जाती है। परन्तु मनुष्य अपनी स्नेहमयी वाणी के मूल्यों का संचार किया उन्हीं कवियों में से 'ईसुर' कवि का नाम द्वारा मरने पर भी लोगों के बीच बना रहता है अर्थात् याद किया अति प्रसिद्ध है। आज भी बुन्देलखण्ड के ग्रामीण अंचल में ईसुरी जाता है। जैसे पूरी हड़िया को हाथ लगाने की जरूरत नहीं, मात्र फाग, ईसुर की चौपाई, दोहा लोगों की जवान पर हैं। मनुष्य जन्म एक चावल को टोहने भर से पूरे भात पकने का अंदाज लग जाता की दुर्लभता व सार्थकता का बखान ईसुरी ने भी अपने साहित्य में है वैसे ही व्यक्ति के पूरे जीवन का सार उसकी मधुर हित-मित किया। जब मनुष्य जन्म हमें सौभाग्य से मिला है तब हमें अवश्य प्रिय वाणी (बातों) में ही रहता है। ही उसका उपयोग अच्छे कार्यों के लिए करना चाहिए, बुराईयों कवि इस शरीर के द्वारा परोपकार करके, इसकी सार्थकता से सदा दूर रहना चाहिए। ईसुरी कहते हैं बताते हुए अन्य चीजों को व्यर्थ बताते हुए कहते हैंमानस होत बड़ी करनी सें, रजउ में कइसे तीसें जौ तन परमारथ के लाने, जो कोउ करके जानें नेकी-बदी, पुण्य-परमारथ भक्ति भजन होय जीसें नईं जे महल-दुमंजिला अपने, न बखरी दालाने अपने जान गुमान न करिये, लरिये नहीं किसी से जे सब माया के चक्कर , विरथा फिरत भुलाने वे ऊंचे हो जात कऊत हैं, नीचै नबै सभी से कैड़ा कैसो छोड़'ईसुरी' हंसा हुऔ रमानें फूंक-फूंक पग धरत 'ईसुरी', स्याने कहैं इसी में अर्थात् यह शरीर परोपकार के लिए है। जो यह कार्य कवि का भाव है मनुष्य जन्म बड़े पुण्योदय से मिलता है | करके जानेगा, वही सार है। घर, मकान, बंगला, आंगन इन सब और इसी जन्म से अर्थात् मनुष्य शरीर से ही अच्छाई-बुराई, में अपने को व्यर्थ ही मत भुलाओ। एक दिन घर परिवार सब कुछ पुण्य-परोपकार, भक्ति-भजन आदि हो पाते हैं। इसलिए कभी छोड़कर यह जीव (आत्मा) एक दिन रवाना (चलता बनता) हो अहंकार (घमंड) नहीं करना चाहिए, न ही किसी से शत्रुता । जाता है। अंत में उसके किये गये कार्य ही उसे अमर बनाने में करनी चाहिए। जो मनुष्य सब तरह से, सभी से विनम्र होकर रहते सहयोगी बनेंगे। हैं कहा जाता है वे ही ऊचाईयाँ पाते हैं या श्रेष्ठता को प्राप्त हैं। कवि इस नश्वर शरीर को किराये का मकान कहकर ईसुर कवि कह रहे हैं कि भले लोगों का यह भी कहना है कि हम सम्बोधित करता है। जीव कभी भी इससे निकाल दिया जायेगा। जन्म पाकर विवेक पूर्वक कदम रखें अर्थात् चलें यही बात गुणी इस शरीर रूपी मकान की दीवारें मिट्टी की हैं अत: कच्ची हैं जन सदा से कहते आये हैं। कभी भी ढह सकती हैं। ऊपर छत फूस चारे की हैं अत: कितने मधुर वाणी के व्यवहार से ही व्यक्ति लोक में एक दूसरे दिन का सहारा है। सब कुछ बिना किसी सुरक्षा के है। दस दस का स्नेह पात्र बनता है। जीवन के अन्त तक ही सब साथी हैं। दरवाजे होते हुये भी कोई ताला कुंजी नहीं है । मालिक चाहे जिस दिन निकाल देगा, अर्थात् इसका कोई भरोसा नहीं। ये भाव निम्न कोई किसी के साथ नहीं मरता परन्तु उसके व्यवहार के कारण पंक्तियों में सहज ही समझ आ जाते हैंमरने के बाद भी लोग उसे याद रखते हैं16 मई 2003 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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