Book Title: Jinabhashita 2003 05
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 32
________________ 1 है, बल्कि वे अपने तीर्थंकर देव की सेवा कर अपने आपको धन्य मानते हुए अपनी पुण्य वृद्धि कर लेते हैं तीर्थंकर की सेवा में भी यक्ष-यक्षियों से कई गुना अधिक महत्त्व कल्पवासी देवों कुबेर सौधर्मादि स्वर्गों के इन्द्रों का होता है। मूर्ति कला के इतिहास के विद्वान इस ऐतिहासिक तथ्य से परिचित हैं कि दिगम्बर प्रतिमाओं के नीचे सिंहासन पर एवं दायीं बांयी ओर यक्षादि का अंकन दसवीं शताब्दी के पश्चात् प्रारंभ हुआ। 12 वीं 13 वीं शताब्दी में निर्मित प्रतिमाओं में शासन देवों का अंकन लोकप्रिय रहा। लगभग दसवीं शताब्दी में देवी-देवताओं की स्वतन्त्र मूर्तियों का निर्माण प्रारंभ हुआ। इतिहासकारों का मत है कि इन देवी-देवताओं का स्वतन्त्र मूर्ति निर्माण वैदिक और बौद्ध परंपरा से ग्रहण किया गया। कुंडलपुर तीर्थ के बारे में आपकी विशेष चिंता इस लेख में पुनः दृष्टि गोचर हो रही है। बड़े बाबा की मूर्ति को दिगम्बर मूर्ति सिद्ध करने के लिए आप गोमुख यक्ष, चक्रेश्वरी को अकाट्य साक्षी मान रहे हैं। आपकी बात ठीक है, किंतु क्या बड़े बाबा की मूर्ति का नग्नत्व दूसरे साक्ष्यों से कम अकाट्य है ? यहाँ तो संयोग से यक्ष चक्रेश्वरी का अंकन है किंतु देश के अनेक तीर्थ स्थलों एवं मुख्य मंदिरों में बिना यक्षादि के अंकन के भी बहुसंख्यक मूर्तियाँ पाई जाती हैं। यहाँ तो मात्र नग्नता ही मूर्ति के दिगम्बर होने का मुख्य प्रमाण है। संभवत: नहीं चाहते हुए भी आपकी लेखनी से अंतिम पृष्ठ पर निम्न शब्द निः सृत हुए हैं- "जहाँ ऐसी रचना है उन्हें नष्ट करने या स्थानांतरित करना उचित नहीं है और दिगम्बर समाज के लिए अहितकर है, यही मेरी विनय है"। यह सत्य नहीं छिपाया जा सकता कि आपने कुंडलपुर के नव निर्माणाधीन मंदिर के बारे में यह सब लिखा है। यदि मेरा अनुमान सच हो तो में आपको याद दिलाना चाहूँगा कि विद्रवर दमोह में आप मेरे, प्राचार्य नरेन्द्र प्रकाश जी, बैनाड़ा जी एवं कमेटी के सदस्यों के समक्ष वर्तमान कुंडलपुर मंदिर के अनेक कारणों से अनुपयोगी होने एवं भूकंप निरोधी दीर्घजीवी विशाल नव मंदिर के निर्माण की आवश्यकता को मान चुके थे और सतना समाज के समक्ष इस बिंदु पर आगे कुछ नहीं लिखने की घोषणा भी कर चुके थे। फिर भी आप वरिष्ठ विद्वान हैं और अपने चिंतन के आधार पर समाज को मार्गदर्शन प्रदान करने के लिए स्वतन्त्र हैं। मैं इस बारे में अधिक कुछ नहीं कहूँगा केवल एक छोटी सी बात लिखना चाहूँगा कि मूर्तियों का स्थानांतरण आवश्यकतानुसार पूर्व काल में सदैव होता रहा है। स्वयं बड़े बाबा की मूर्ति पुराने जीर्ण मंदिर से वर्तमान मंदिर में लाई गई थी। श्री महावीर जी की एवं पदमपुरा की मूर्तियाँ भी नव निर्मित मंदिरों / वेदियों में स्थानान्तरित हुई हैं। चांदखेड़ी की मूर्ति भी पहले कहीं और थी और वहाँ से वर्तमान मंदिर में लाई गई है। 300 मई 2003 जिनभाषित Jain Education International मंदिर के जीर्ण होने अथवा उसके असुरक्षित पाए जाने पर मूर्ति की सुरक्षा के लिए उसको अन्य सुरक्षित स्थान पर स्थानान्तरित करना निश्चित रूप से हितकर है। यदि कदाचित् आपके उक्त लेखन का लक्ष्य कुंडलपुर न रहा हो तो मुझे क्षमा करें। मैं इस अनुच्छेद में लिखित वाक्यों को वापिस लेता हूँ। अंत में माननीय विद्वान के स्पष्टीकरण का अंतिम अनुच्छेद पढ़कर मैं हृदय की सम्पूर्ण सरलता से यह निवेदन करना चाहता हूँ कि मैं ही नहीं सम्पूर्ण समाज आपके द्वारा की गई जैन साहित्य की एवं जैन समाज की अमूल्य सेवाओं को जैन इतिहास की उल्लेखनीय घटनाएँ मानता है और उन सब के लिए आपके प्रति विनय पूर्वक आभार प्रदर्शित करता है। कौन नहीं जानता कि आपने "सोनगढ़ समीक्षा" तथा " परम दिगम्बर गोमटेश्वर " जैसी समयोपयोगी पुस्तकें लिखकर जैन धर्म की प्रसंशनीय प्रभावना की हैं। आप सैद्धान्तिक ज्ञान के साथ-साथ पुरातत्त्व एवं मूर्ति विज्ञान के भी विशेषज्ञ विद्वान हैं। कृपया यह निराधार संदेह अपने मन से निकाल दीजिए कि मैं या और कोई आपकी मूल्यवान सेवाओं की अनदेखी कर आपके विरुद्ध दूषित प्रचार करना चाहता है वयोवृद्ध ज्ञानवृद्ध होने के नाते मैं तो आपसे विनय पूर्वक मार्गदर्शन चाहता हूँ कि मुझे आपके विचारों से सहमत नहीं होने पर अपने विचारों को अभिव्यक्त करना चाहिए या नहीं? आपका आदेश प्राप्त होने पर मैं आगे वैसा ही करूँगा। प्रसंग प्राप्त प्रकरण में तो यह विशेषता रही है कि आपने मेरे सभी बिंदुओं को अपने स्पष्टीकरण में स्वीकार किया है और फिर भी मुझे दुषित प्रचार का दीपी बनाया है। यह कैसा विरोधाभास है? बंधुवर यह बात मैं ओर मेरे साथ सारा जैन समाज घोषणा पूर्वक स्वीकार करता है कि आपने पूरी निष्ठा के साथ जैन संस्कृति की हित कामना लेकर अपनी बात कही है। क्या मैं आप से पुनः प्रार्थना करूँ कि आप भी यह विश्वास करें कि आप ही की तरह मैं और दूसरे भी पूरी निष्ठा और जैन संस्कृति की हित कामना से ही अपनी बात कहते हैं। ऐसा विश्वास कर लेने पर आपके मन में बैठा हुआ मेरे और दूसरों के प्रति आपके विरुद्ध दूषित प्रचार के संदेह का भूत निकल जायेगा। मैं अंत में पुन: आपकी योग्यता को प्रणाम करता हूँ । आप दिगम्बर जैन समाज की मूल्यवान सम्पत्ति हैं। आप पर समाज को गर्व है। आपका छोटा भाई अधिकारपूर्वक आपसे विनय करता है। कि आप सकारात्मक सोच अपनाते हुए इस कठिन समय में दिगम्बर समाज को संगठित कर दिगम्बर जैन धर्म की सुरक्षा और विकास में संलग्न होने के लिए मार्गदर्शन प्रदान करें। (सन्दर्भ प्रस्तुत लेख में श्वेताम्बर जिनप्रतिमा सम्बन्धी श्वेताम्बराचार्यों के मत डॉ. रतनचन्द्र जैन, भोपाल के अप्रकाशित ग्रन्थ 'जैन परम्परा और यापनीय संघ' से उद्धृत हैं -1 ) मदनगंज किशनगढ़ (राजस्थान ) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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