Book Title: Jinabhashita 2003 05
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 26
________________ दिगम्बर प्रतिमा का स्वरुपः एक स्पष्टीकरण कुछ समय पूर्व श्री मूलचन्दजी लुहाड़िया ने इसी शीर्षक से एक टिप्पणी 'जिनभाषित' में प्रकाशित की है, जिसमें मेरे एक वक्तव्य की आलोचना की है। उन्होंने मुझ पर 'पंथ-विमूढ़' होने का मिथ्या आरोप भी लगाया है। लुहाड़िया जी के उस लघु लेख का उत्तर देने का मैं यहाँ प्रयत्न कर रहा हूँ। उसके पहले मैं उनका धन्यवाद करता हूँ कि उन्होंने मेरे कथन की समीक्षा करके मुझे अपनी बात कहने का अवसर दिया है। उचित तो यह था कि जब मेरे कथन में श्री लुहाड़ियाजी को कुछ आलोचनीय बिन्दु नजर आये थे, तब वे मुझसे पूछ लेते । मैं तो अपने वक्तव्य का पूरे पेंतालीस मिनट का कैसेट उन्हें उपलब्ध करा देता । फिर वे उस पर टिप्पणी करते, तो वह नैतिक बात होती, पर खेद है कि उन्होंने ऐसा नहीं किया। मेरे वक्तव्य की रिपोर्ट का वह पैरा, जिस पर मेरे विद्वान मित्र ने टिप्पणी लिखी है, इस प्रकार है श्री नीरज जैन ने कहा कि भगवान् के गर्भ में आने के पहले से देवी-देवताओं की भूमिका प्रारम्भ हो जाती है, इसलिये जैन धर्म में शासन देवी देवताओं का बड़ा महत्त्व है। लेकिन आज की स्थिति को देखकर लगता है कि एक दिन वह आयेगा जब दिगम्बर श्वेताम्बर की पहचान को लेकर खड़े होंगे तो दिगम्बरत्व की पहचान के लिये एक ही प्रमाण मिलेगा, वह है जैन देवीदेवता, क्योंकि दिगम्बर व श्वेताम्बरों के देवी-देवता अलगअलग हैं। इसलिये देवी-देवताओं का अंकन ही स्वत्व का प्रमाण होगा।' मैं उस सभा में तीर्थ संरक्षणी महासभा के पुरातत्त्व अधिकारियों के बीच अपनी प्राचीन धरोहर को विनाश से बचा कर संरक्षित रखने के बारे में बोल रहा था। मेरे कथन के प्रतिफल की कल्पना करके विद्वान लेखक ने अपने लेख में जो कुछ निराधार / अशुभ भविष्यवाणियाँ कर डाली हैं, वह सब लुहाड़िया जी का अपना सोच है, उसके बारे में मुझे कुछ नहीं कहना । आज कल अपनी सांस्कृतिक परम्पराओं की अनदेखी करके, कुछ लोग हमारे प्राचीन मंदिरों और मूर्तियों में जीर्णोद्धार के नाम पर मनमाना परिवर्तन करके उनके मूल स्वरूप को नष्ट करना महान् पुण्य का काम मानकर उसमें संलग्न हैं। महासभा की चिन्ता यह है कि इस प्रकार जीर्णोद्धार के नाम पर अपने जिनायतनों की प्राचीनता को बदलने या नष्ट करने का परिणाम यह हो रहा है कि आज हमारी हजार दो हजार साल की सांस्कृतिक धरोहर का अस्तित्व खतरे में पड़ता लग रहा है। हमें यह समझना चाहिये कि जब हम अपने तीर्थों, मंदिरों और मूर्तियों पर से अपने इतिहास के अभिलेख और अपनी परम्पराओं के प्रतीक मिटाते हैं, मई 2003 जिनभाषित 24 Jain Education International नीरज जैन तब हम उन तीर्थों पर भविष्य में उठने वाले कानूनी विवादों के अवसर पर हमारे स्वामित्व की घोषणा करने वाले कुछ सबलसमर्थ सबूत अपने हाथों नष्ट कर रहे होते हैं। यह एक आत्मघाती कदम है। इस प्रकार मैंने अपने वक्तव्य में प्राचीन मूर्तियों पर अंकित शिलालेखों और मूर्ति लेखों को, तथा शासन देवताओं के अंकन को दिगम्बर समाज का स्वत्व प्रमाणित करने के लिये महत्त्वपूर्ण बताया था । माननीय लेखक ने मेरे वक्तव्य में से 'स्वत्व' शब्द का लोप करके मेरे अभिप्राय को सदोष ठहरा दिया है। उन्होंने शासन देवता मूर्तियों के अंकन को भगवान् जिनेन्द्र की पहचान से जोड़ कर यह टिप्पणी लिख डाली है। यह मेरा दुर्भाग्य है कि जो बात मैंने कही ही नहीं उसका स्पष्टीकरण मुझे देना पड़ रहा है। मेरे पैंतालीस मिनट के विस्तृत वक्तव्य को रिपोर्टर द्वारा लिखी गई। पाँच पंक्तियों के माध्यम से समझने का प्रयत्न अधूरा तो रहेगा ही भ्रामक भी हो सकता है। मुझे विश्वास है कि आदरणीय लुहाड़ियाजी के साथ कुछ ऐसा ही हुआ है। यह तो सर्वविदित है कि भगवान जब माता के गर्भ में आते हैं उसके छह माह पूर्व से ही इन्द्र और नरेन्द्र सभी उनके जन्म को महिमा-मण्डित करने में लग जाते हैं। भगवान् के जीवन काल में पग-पग पर हम देवी- देवताओं को उनकी सेवा में संलग्न पाते हैं। यहाँ तक कि अंत में जब भगवान् मोक्ष चले जाते हैं, उसके बाद भी उनके नखकेश विसर्जित करने तक देव और देवियाँ भगवान् की सेवा और जिनधर्म की प्रभावना में जुटे रहते हैं । ज्ञान-कल्याणक तक शासन देवताओं की भूमिका का उल्लेख आचार्य प्रणीत शास्त्रों में नहीं मिलता। सर्व प्रथम वे भगवान् के केवलज्ञान कल्याणक से, धर्म सभा में अनुशासन और जिनशासन की प्रभावना बढ़ाने में उपस्थित मिलते हैं। 'शासन देवता' शब्द में शासन देव ओर देवियाँ दोनों समाहित हो जाते हैं। उदाहरण के लिये धरणेन्द्र को शासन देवता कहते हैं और देवी पद्मावती को भी शासन देवता कहा जाता है। इस शब्द का प्रयोग देव और देवी दोनों के लिये होता है। इनके लिये 'शासन यक्ष और 'शासन यक्षी' अथवा 'यक्ष-यक्षिणी' शब्द का भी व्यवहार होता है। किसी को ऐसा भ्रम हो कि ये यक्ष-यक्षिणी जैन धर्म में थे ही नहीं, कुछ आचार्यों द्वारा इन्हें सनातन धर्म से ग्रहण किया गया हैं, तो उन्हें यह समझ लेना चाहिये कि सनातन धर्म में कहीं किसी यक्ष - यक्षी का नामोल्लेख तक नहीं है। जो वहाँ हैं ही नहीं, उन्हें For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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