Book Title: Jinabhashita 2003 05
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 27
________________ वहाँ से ग्रहण करने की धारणा कहाँ तक ठीक है सो विचार करना । सत्ताईस अंको में 'जय गोमटेश' नाम से धारावाहिक में प्रकाशित चाहिये। 'यक्ष-पक्षी' नाम और 'शासन-देवता' पद का उल्लेख | किया। बाद में श्रीमान साहू अशोक कुमार जी के आग्रह पर मैंने केवल श्रमण परम्परा में ही उपलब्ध होता है। ये हमारी सांस्कृतिक | उस लेखमाला का सम्पादन करके 'परम दिगम्बर गोमटेश्वर' परम्परा के ही अंग हैं, कल्पित या किन्हीं अन्य मत-मतान्तरों से | पुस्तक तैयार की जो वीर सेवा मंदिर दिल्ली से प्रकाशित होकर लाये हुए आगंतुक नहीं हैं। बड़ी संख्या में वितरित की गई। बाद में उसके कन्नड और मराठी इस संबंध में मुझे अपने विद्वान भाई से यही कहना है कि अनुवाद भी प्रकाशित हुए। समीक्षकों ने इसे दिगम्बरों के स्वामित्व मैंने 'वीतरागी दिगम्बर मुद्रा की पहचान के लिये देवी-देवताओं | का बहुमूल्य दस्तावेज कहा था। अपने प्रलाप का यह मुँहतोड़ के अंकन को मुख्य प्रमाण नहीं कहा। तीर्थों और मन्दिर-मूर्तियों उत्तर पाने के बाद उन स्वयंभू आचार्य की बोलती अभी तक बंद पर श्वेताम्बरों द्वारा स्वामित्व का विवाद खड़ा किये जाने की स्थिति में हमारे शिलालेखों. मूर्तिलेखों और मूर्तियों पर इन देवी- | लुहाड़ियाजी ने अपनी टिप्पणी में लिखा है कि- 'दिगम्बर देवताओं का अंकन भी हमारे स्वत्व का प्रमुख प्रमाण हो सकता | प्रतिमा का श्वेताम्बर प्रतिमा से अलग पहचान कराने वाला मुख्य है' ऐसा ही कहा है। मेरा पूरा वक्तव्य श्री लुहाड़िया के ध्यान में लक्षण वीतरागता व नग्नत्व है न कि देवी-दवताओं का अंकन?' होता तो, उन्हें मुझ पर ऐसा आरोप लगाने की आवश्यकता नहीं यह बात अपनी जगह एकदम ठीक है। हर श्रावक इस बात को पड़ती। यदि वे चाहते तो मैं अपने वक्तव्य का पूरे पैंतालीस मिनट समझता और स्वीकार करता है। परन्तु जब किसी न्यायालय में का कैसेट उन्हें उपलब्ध करा देता। फिर वे उस पर टिप्पणी करते | किसी प्रतिमा के स्वामित्व का विवाद प्रस्तुत होता है, तब उस पर तो वह नैतिक बात होती। लेखक का धर्म तो यही है, पर उन्होंने दिगम्बर समाज का स्वत्व' सिद्ध करने के लिये मूर्ति की वीतरागता ऐसा नहीं किया। और नग्नत्व न्याय की दृष्टि में निर्णायक साक्ष्य नहीं माने जाते। प्राचीन मंदिरों और मूर्तियों पर से पूर्व स्थापित देवी- | इसका कारण यह है कि ऐसा सभी विवादों में श्वेताम्बरों का देवताओं की आकृतियों को मिटाने या हटाने को मैंने सदा अनुचित कथन यह होता है कि वे दिगम्बर और श्वेताम्बर, अथवा सवस्त्र माना है, परन्तु नवीन प्रतिमाओं पर देवी-देवताओं का अंकन मैंने और वस्त्र-विहीन, दोनों प्रकार की मूर्तियाँ पूजते हैं। अंतरिक्ष कहीं अनिवार्य घोषित नहीं किया। कहीं भी यदि ऐसा किया हो | पाश्वनाथ, श्रीमहावीरजी. केसरियाजी, मक्सीजी, कुलपाक, नेपानी तो लुहाड़िया जी बतायें, मैं उसका स्पष्टीकरण करने के लिये | आदि क्षेत्रों के विवाद उन्होंने इसी प्रकार खड़े किये हैं। तीन-तीन तैयार हूँ। प्राचीन मूर्तियों का संरक्षण अलग बात है और नवीन का | पीढ़ियों से यह लड़ाई हम लड़ रहे हैं। भगवान् के दिगम्बर और निर्माण बिलकुल अलग बात है। वीतराग होने मात्र से हमें वहाँ अपना 'स्वत्व' स्थापित करने में तीर्थों पर आक्रमण का श्वेताम्बरों का दौर अभी भी थमा | सहायता नहीं मिल रही। हमें अपने स्वत्व की मान्यता के लिये नहीं है। उनके पास सौ -दो सौ साल का निर्धारित कार्यक्रम है और प्रमाण आवश्यक होते हैं। और उनका यह अभियान बराबर चल रहा है। अभी आठ-दस | श्वेताम्बरों की ओर से जहाँ भी विवाद उठाये गये हैं वे न साल पहले श्रवणबेलगोल जैसे तीर्थ पर वह आक्रमण हो चुका | तो बीसपंथी समाज के खिलाफ हैं न तेरापंथ के खिलाफ हैं। है। एक श्वेताम्बर आचार्य ने गुजराती में एक पुस्तक लिख कर लुहाड़ियाजी, बैनाड़ा जी या भारिल्ल जी की विचारधारा के खिलाफ सारे देश में प्रचारित की थी जिसमें था कि भी वे झगड़े नहीं उठाये गये हैं। श्वेताम्बरों ने तो दिगम्बर धर्म 'गोमटेश्वर बाहुबली स्वामी की मूर्ति मूलत: श्वेताम्बर | और संस्कृति पर ही आक्रमण किया है। ऐसी स्थिति में क्या ऋषि सुहस्ति स्वामी की सम्राट् सम्प्रति के द्वारा निर्मित, दो हजार | दिगम्बर समाज को, अपने आपसी मतभेद दरकिनार करके उन वर्ष प्राचीन श्वेताम्बर प्रतिमा थी। दसवीं शताब्दी में दिगम्बर | उपद्रवों का सामना नहीं करना चाहिये? क्या हमें ऐसा वातावरण आचार्य नेमिचन्द्र ने चामुण्डराय के साथ मिलकर षडयंत्र रचा | बनाकर नहीं रखना चाहिये कि अवसर आने पर हम अपने स्वत्व' और मूर्ति की चादर छीलकर उसकी जगह बेलें बना कर उसे | की रक्षा के लिये संगठित होकर कोई कदम उठा सकें? इसीलिये बाहुबली के नाम से प्रचारित कर दिया । मूलत: वह प्रतिमा दिगम्बरों | मेरी चेतावनी थी कि- 'आगे हमारे तीर्थों पर जहाँ भी विवाद की नहीं श्वेताम्बरों की है।' उठाये जायेंगे वहाँ हमारी प्राचीन धरोहर, हमारे शिलालेख, मृतिलेख इस आक्रमण का प्रतिकार करने के लिये मैंने उस पुस्तक या प्रतिमाओं पर अंकित चिह्न, प्रतीक और शासन-देवताओं की का गुजराती से हिन्दी में अनुवाद करके समाज की सभी शीर्षस्थ | आकृतियाँ अत्यंत महत्त्वपूर्ण साक्ष्य के रूप में काम आयेंगे। उस संस्थाओं को भेजा, पर एक महासभा को छोड़ कर किसी संस्था | समय वहाँ हमारी प्राचीनता ही हमारे 'स्वत्व' का प्रमाण बनेगी।' ने उस पर ध्यान नहीं दिया। तब मैंने उस पुस्तक का उत्तर लिखा उदाहरण के लिये, भगवान् न करे कि कभी ऐसा हो, पर जिसे सुधी सम्पादक प्राचार्य नरेन्द्रप्रकाश जी ने जैन गजट के । यदि मौ-दो सौ साल बाद भी कुण्डलपुर जैसे तीर्थ पर कोई मई 2003 जिनभाषित 25 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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