Book Title: Jinabhashita 2003 05
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 28
________________ विवाद डाला जायेगा, तो उस समय वहाँ हमारे मन्दिर निर्माण की । क्षमायाचना करनी पड़ी और आगे कभी फिर कहीं ऐसा नहीं प्राचीन शैली. महाराज छत्रसाल का तिथि-संवत् सहित अभिलेख करने का लिखित आश्वासन देना पड़ा था। और शिलालेखों में भट्टारकों का उल्लेख हमारे पक्ष का समर्थन 1 संक्षेप में इतना ही मुझे कहना है कि प्राचीन काल से करेगा। सबसे महत्त्वपूर्ण और आकट्य साक्षी तो बड़ेबाबा के | पाषाण पर अहंत भगवान् का समवशरण बनाने की प्रथा रही है। आसन के गोमुख यक्ष और देवी चक्रेश्वरी ही बनेंगे, क्योंकि श्वेताम्बर | अष्ट-प्रातिहार्य युक्त भगवान् जिनेन्द्र की सम्पूर्ण छवि उन मूर्तियों मान्यता में ऋषभदेव के शासन देवताओं का स्वरूप अलग प्रकार | में अंकित की जाती थी। जिन शासन की सेवक-शक्तियों के रूप का कहा गया है और श्वेताम्बर परम्परा में भट्टारक पद ही नहीं है। में शासन देवताओं को सिंहासन पर अंकित किया जाता था। इस यही वह पृष्ठभूमि है जिसे लेकर मैं उस दिन लखनऊ में | सांगोपांग प्रतिमा को मूर्ति नहीं, समवशरण कहने की ही प्रथा महासभा के कर्णधारों को तथा तीर्थ संरक्षणी महासभा के पुरातत्त्व | हमारे पूर्वजों की रही है। जहाँ ऐसी रचना है उन्हें नष्ट करने या अधिकारियों को अपनी प्राचीन धरोहर की महत्ता समझाते हुए, | स्थानान्तरित करना उचित नहीं है और दिगम्बर समाज के लिये उसके संरक्षण की प्रेरणा दे रहा था। मैं कह रहा था कि प्राचीन | अहितकर है, यही मेरी विनय है। धरोहर का विनाश एक भयंकर पाप है अत: दिगम्बर समाज को | प्राचीन तीर्थों के संरक्षण और सार-सम्हार' के विषय में इस पाप से बचना चाहिये। मैंने तीर्थंकर प्रतिमाओं पर शासन | यही मेरा वह वक्तव्य था, जिसकी रिपोर्ट को लेकर भाई लुहाड़िया देवताओं को अंकित कराने का कभी न तो परामर्श दिया है और | जी ने इतनी अनावश्यक और असंबद्ध कल्पनाएँ कर डाली हैं। न कहीं ऐसा कोई आग्रह किया। मेरा आग्रह केवल यह था और | प्रायः विचारों के टकराव से पंथ बन जाते हैं, परन्तु मेरा अटल अभी भी है कि जहाँ प्राचीन मंदिरों में या मूर्तियों पर शासन- विश्वास है कि जैन समाज के सभी पंथों के अनुयायी हर भाईदेवताओं का अंकन तथा अभिलेख आदि हैं उन्हें पंथ-व्यामोह में बहिन के मन में भगवान् जिनेन्द्र के प्रति अगाध भक्ति और आस्था पड़कर नष्ट करना जैन संस्कृति के लिये हानिकर है, जरा भी होती है। मैं सदा उस आस्था को प्रणाम करता हूँ। मैं दिगम्बर लाभप्रद नहीं है। समाज की हर परम्परा का आदर करता हूँ और किसी भी परम्परा जहाँ तक शासन देवताओं की पूजा या भक्ति का प्रश्न है को दोषपूर्ण बताने या परिवर्तित करने में मेरी कोई रुचि नहीं है। इस विषय में मैंने अपनी ओर से पक्ष-विपक्ष में अभी तक कहीं पर जब मुझ पर ऐसे द्वेषपूर्ण ओछे आरोप मढ़े जाते हैं, तब मुझे कुछ नहीं लिखा। 'जिन-भाषित' के यशस्वी सम्पादक डॉ. रतनचन्द्र | असह्य पीड़ा होती है। विशेषकर जब वे आक्षेप किसी विद्वान मित्र जैन का परामर्श मुझे शास्त्र-सम्मत और उपयुक्त प्रतीत होता है | के द्वारा मेरे कथन को तोड़-मरोड़ कर, मुझे एकान्तवादी या पंथकि वे देवगति के संसारी प्राणी हैं, भगवान् जिनेन्द्र के समान पूजा विमूढ़ सिद्ध करने के अभिप्राय से लगाये गये हों, तब वह पीड़ा के अधिकारी नहीं है, परन्तु भगवान् के भक्त होने के कारण हमारे | चारगुनी हो जाती है। सम्मान के पात्र हैं। मैं अब सतहत्तर पार कर रहा हूँ। जानता हूँ अधिक समय यह मेरा आज का नहीं सदा का अनुरोध रहा है। अभी | अब मेरे पास नहीं है। इतनी ही मेरी विनय है कि अपने पचास1997 में जब सोनगढ़पंथी भाइयों ने हिम्मतनगर की सोलह मूर्तियों पचपन वर्षों के खट्टे-मीठे अनुभवों के बल पर, अपनी पूरी निष्ठा के अभिलेख घिसवाकर उन पर अपने लेख खुदवा लिये थे तब के साथ जैन संस्कृति की हित-कामना लेकर जो मैं कह रहा हूँ मैंने ही उस पर आपत्ति उठाकर उन पर अभियोग चलाने की | कृपया उसे सुनने-गुनने और समझने का प्रयत्न करें। यदि ऐसा न धमकी दी थी। परिणामत: उन्हें अपना अपराध स्वीकार करना | कर सकें तो उसके अर्थ के अनर्थ करके मेरी मंगल मनीषा को पड़ा, उसके लिये उनके मूर्धन्य पदाधिकारियों को प्रतिष्ठाचार्य | दृपित रूप में प्रचारित करके मेरे प्रति अन्याय तो न करें। सहित साहू अशोक कुमार जी से पंचाट कराकर, जयपुर में सुषमा प्रेस कम्पाउण्ड सतना - ४८५ ००१ दिगम्बराचार्य पूज्य विद्यानन्दजी महाराज के समाने खड़े होकर आचार्य श्री विद्यासागर जी के सुभाषित * पंच परमेष्ठी की आराधना विषयकषायों से बचने के लिए होती है। पाप से भीति बिना भगवान् से प्रीति नहीं और भगवान् से प्रीति बिना आत्मा की प्रतीति नहीं। * प्रभु का अवलम्बन लेकर प्रभु बना जा सकता है। 26 मई 2003 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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