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भूमिकाओं में दिया गया है।
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2. जैनदर्शन में पुद्गल और आधुनिक विज्ञान का परमाणुवाद आचार्य उमास्वामी के तत्वार्थसूत्र" के पाँचवे अध्याय में षड्द्रव्यों में अजीव (पुदगल - Matter), आकाश (space), काल (Time), धर्मद्रव्य (Non Matterial, Media for Prapogation of matter and Energy) तथा अधर्म द्रव्य का 42 सूत्रों में वर्णन पूर्णतया विज्ञान सम्मत है, पुद्गल (मूर्तिक/रूपी) के एक अविभाज्य कण को स्निग्ध या रूक्ष कणों के रूप में बताया गया है जो ऋणात्मक विद्युन्मय कण इलेक्ट्रॉन और धनात्मक विद्युन्मय कण पोजीट्रॉन कण है, जिनका परमाणु संरचना में मूलकणों के रूप में महत्वपूर्ण योगदान है। आधुनिक विज्ञान- परमाणु की आन्तरिक संरचना में इलेक्ट्रॉन्स केन्द्रक से चारों ओर विभिन्न उर्जा स्तरों में तीव्र गति से घूमते रहते हैं।
स्कन्धों (Molecules ) के निर्माण में यह सूत्र द्रष्टव्य
है
"स्निग्धरूक्षत्वाद् बन्धः " ॥ 33-5 ॥ अर्थात् स्निग्ध / रूक्ष कण आपस में स्पृष्ट होते हैं और उनका बंध-रूप परिणमन ही परमाणु की रचना करता है। प्रो. एडिंग्टन ने अपनी पुस्तक " साइंस एण्ड कल्चर" में इस तथ्य को उद्घाटित किया है। "निगेट्रॉनकण प्रोटोन की तरह भारी परन्तु ऋणात्मक विद्युन्मय हैं। वास्तव में यह रूक्ष कण का रूक्ष कण से सम्मिलन का उदाहरण है । इसी प्रकार पोजीट्रॉन कण परस्पर मिलकर प्रोटोन कण बनाते हैं, जो स्निग्ध का स्निग्ध कण के सम्मिलन का उदाहरण है।"
परमाणु संरचना में समान ऋण विद्युन्मय इलेक्ट्रॉन मिलकर निगेटिव प्रोटोन अथवा समान धन विद्युन्मय पोजीट्रॉन का निर्माण करते हैं क्योंकि इनके बीच की दूरी 10-12 सेमी या इससे कम होने से ये परस्पर सजातीय होने पर भी मिल जाते हैं।
'न जघन्यगुणानाम्' ॥34-5 | जिनमें एक ही अंश स्निग्ध का अथवा रूक्ष का पाया जाता है, उनका परस्पर बंध नहीं होता। आधुनिक विज्ञान मानता है कि परमाणु संरचना में लोएस्ट एनर्जी लेवेल के मूलकण आपस में नहीं मिलते। अतः रूक्ष या स्निग्ध कण स्वतंत्र अवस्था में भी पाये जाने चाहिए। प्रयोग-धातुओं को विद्युत द्वारा गर्म किए जाने पर निर्वात में, उनसे इलेक्ट्रॉन के पुंज निर्गत होते हैं। एण्डरसन ने कास्मिक किरणों को ऋण विद्युन्मय कणों का पुंज ही बताया है। ये प्रयोग सूत्र नं. 33 को सत्यापित करती है।
पुद्गल द्रव्य की अन्य विशेषताएं
(1) स्पर्श रसगन्ध वर्णवन्तः पुद्गलाः ॥ 23-5 ॥ सभी पुद्गल, स्पर्श, रस, गन्ध और वर्ण वाले होते हैं आधु. विज्ञान चार भौतिक प्रविधियों द्वारा जैन दर्शन में वर्णित आठ प्रकार के स्पर्श का ज्ञान कराता है- कठोर से (मृदु कठिन), घनत्व से (गुरु लघु), ताप से (शीत, उष्ण), तथा रवे की संरचना में (स्निग्ध और रूक्ष) रस के संबंध में लंदन के प्रो. विनफ्रेड कृलिस ने अपने शोध निबंध 10 मई 2003 जिनभाषित
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में वर्णित किया कि जीभ पर स्वाद का प्रक्षेपण (Projection) लेन्स द्वारा देख जा सकता है जैसे- मिष्ट स्वाद जीभ के अग्रभाग पर, कड़वा स्वाद जीभ के पिछले भाग पर अनुभव किया जाता है। जैनदर्शन में पांच मूल रंगों का वर्णन है नीला, पीला, सफेद, काला और लाल । सी.वी. रमन के वर्ण संबंधी प्रयोगों से उक्त तथ्य प्रमाणित हैं। जैसे-जैसे वस्तु का ताप बढ़ता है उत्सर्जित प्रकाश तरंगों की तरंग धैर्य के परिवर्तन से रंग परिवर्तित होते जाते हैं।
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(2) पुद्गल परमाणु की गतिशीलता जैन धर्म के परमाणु में एक समय में चौदह राजू गमन करने की शक्ति बतलायी है। प्रकाश-पिण्डों का वेग 3x1010 सेमी प्रति सेकण्ड नाप लिया गया है। ये प्रकाश-पिण्ड-फोटॉन कहलाते हैं, जो पुद्गल के रूप हैं। वि.चु. तरंग आदि परमाणु की गतिशीलता के द्योतक हैं । परमाणु रचना में इलेक्ट्रान का अपने विभिन्न ओरविट्स में घूमते रहना, उक्त तथ्य का प्रमाण है।
आइन्स्टाइन
(3 ) पुद्गल अनन्त शक्ति का खज़ाना के संहति और ऊर्जा सूत्र (E=mc2) जहाँ E=ऊर्जा, M=द्रव्यमान एवं C प्रकाशवेग है, ने यह सिद्ध कर दिया कि वस्तु का द्रव्यमान ऊर्जा में बदला जा सकता है जैसे 10 ग्राम यूरेनियम धातु, जब शक्ति में रूपान्तरित होती है तो 3 हजार टन कोयला जलाने जितनी उष्णता उत्पन्न होती है।
एनीहिलेशन ऑफ एनर्जी घटना द्वारा ऊर्जा को द्रव्यमान में बदला जा सकता है। डॉ. भाभा ने कांस्मिक किरणों के सैद्धान्तिक विवेचन में प्रकाशकण जो (अल्फा) कणों से मिलकर बनते हैं शक्ति का रूप हैं। जब फोटॉन अन्य शक्ति में परिवर्तित होता है, तब परिणाम में, अतिरिक्त ऊर्जा निकलती है। यह पुद्गल की शक्ति का द्योतक है।
( 4 ) ' शब्द बन्धसौक्ष्म्य स्थौल्य संस्थान भेदतमश्छायातपोद्योतवन्तश्च ॥24-5 1 सूत्र के अनुसार शब्द, बंध, सूक्ष्मता, मोटापन, आकृति, भेद, तम ( अंधकार ), छाया, आताप, उद्योत (प्रकाश) ये सभी पुद्गल की पर्यायें हैं।'
वैशेषिक दर्शन का मत है कि शब्द- आकाश द्रव्य का गुण हैं, परंतु आधुनिक विज्ञान ने जैनदर्शन के सिद्धांत का समर्थन किया। ध्वनि ऊर्जा को बांधना, पकड़ना, प्रेषित करना, उसे सघन / विरल करना संभव है। छाया प्रतिबिम्ब का रूप है तम प्रकाश का अभाव नहीं है जैसा कणाद आदि दार्शनिकों ने कहा था, क्योंकि अंधकार में भी इनफ्रारेड और अल्ट्रा बैगनी किरणें गुजरती रहतीं हैं। जिनका प्रभाव फोटोग्राफिक प्लेट पर देखा जा सकता है।
3. जैन दर्शन में अनेकांत की वैज्ञानिकता :
जैनदर्शन में एकांगिक दृष्टियों का निराकरण करने, विविध और परस्पर विरोधी प्रतीत होने वाले गुण धर्मों का समन्वय करने, सत्य शोध और चिंतन के विविध पक्षों को मणिमाला के समान एक सूत्र में निबद्ध करने के लिए अनेकांत की स्वीकृति है।
भौतिक विज्ञान का पितामह अल्वर्ट आइन्स्टीन (1905
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