Book Title: Jinabhashita 2003 05
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 13
________________ 1919) के स्पेशल थ्यौरी ऑफ रिलेटिविटी तथा जैन दर्शन के 'अनेकांत' में कोई फर्क नहीं क्योंकि दोनों सापेक्षवाद के सिद्धान्त पर खड़े हैं। आइन्स्टीन की घोषणा "One thing may be true but not be real true. We can know only. the relative truth. The alsolute truth is known only by the universal observer" आइन्स्टीन सत्य को दो संदर्भों में लेता है- एक सापेक्ष सत्य और दूसरा नित्य / निरपेक्ष सत्य । जैनदर्शन का अनेकांत- सापेक्ष सत्य पर खड़ा है, आइन्स्टीन के एक प्रयोग के द्वारा सापेक्ष सत्य को समझाया किसी सुदूर ग्रह पर एक वैज्ञानिक बैठा है और पृथ्वी पर रखे आवेश पर प्रयोग कर रहा है। उसके लिए पृथ्वी गतिमान है, अतः वह देखता है कि आवेश के आसपास चुम्बकीय क्षेत्र उत्पन्न है । जब पृथ्वी पर उतरकर यही अध्ययन करता है तो वह स्वयं आवेश के साथ पृथ्वी पर घूम रहा है। अतः आवेश को वह स्थिरावस्था में पाता है और देखता है, कि उसके आसपास कोई चुम्बकीय क्षेत्र नहीं है। अतः विज्ञान के निष्कर्ष सापेक्ष सत्य हैं। महावीर का अनेकांत सम्भावनाओं का एक पुंज है। जीवन के सभी पहलुओं की एक साथ स्वीकृति है अनेकांत में । प्रत्येक कोण पर खड़ा हुआ आदमी सही है। भूल वहीं हो जाती है, जब वह अपने कोण को ही सर्वग्राही बनाना चाहता है जीवन व्यवहारजितना व्यापक दृष्टि वाला (अनेकान्तिक) होगा, उतना ही सफल होगा। एकांती का आग्रह अहंकार को जन्म देता है। अहंकार से रागद्वेष होता है जिससे वस्तु स्वरूप का यथार्थ दर्शन नहीं हो पाता। सत्य की अभिव्यक्ति में" स्यात् है, स्थात नहीं है, " स्यात् है स्यात् नहीं है के साथ महावीर ने एक चौथी सम्भावना भी जोड़ी'स्यात् अव्यक्तव्य' । इससे सप्तभंगी का निर्माण हुआ । आइन्स्टीन को भी नया शब्द ' क्वाण्टा' खोजना पड़ा अणु को परिभाषित करने के लिए अणु-कण भी हैं और तरंग भी हैं तथा दोनों सम्भावनाएँ एक साथ भी हो सकती हैं। क्वाण्टा इसी का समाधान है। "क्वाण्टा"- विचार क्रान्ति के बाद निरपेक्ष सत्य का दावा करने वाली मान्यताएँ डगमगा गयीं। अतः वैज्ञानिक सन्दर्भ में महावीर का' स्यात्' परम सार्थक हो गया। 4. विज्ञान के आलोक में अरूपी पदार्थों की अवधारणाएँ - संसार सृष्टि के छह उपादानों में पुद्गल (matter) केवल रूपी/ मूर्तपदार्थ है शेष जीव (आत्मा), धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, काल और आकाश अरूपी पदार्थ हैं। इन षड़द्रव्यों में चार अरूपी अजीव द्रव्यों को आधुनिक वैज्ञानिक मान्यताओं के परिप्रेक्ष्य में अत्यन्त संक्षेप में आख्यापित करते हैं। (1 ) धर्मद्रव्य - पंचास्तिकाय में धर्म द्रव्य का वर्णन इस प्रकार है: 'यह न तो स्वयं चलता है, न किसी को चलाता है, केवल Jain Education International | गतिशील जीव, अजीव स्कन्धों एवं अणुओं की गति में सहकारी एवं उदासीन कारण होता है जीव के गमनागमन, अतिसूक्ष्म पुद्गलों के प्रसारित होने, मनोयोग, वचनयोग, काययोग तथा मनो भाव वर्गणाओं में धर्मास्तिकाय निमित्त कारण है। यह वर्ण, रस, गंध' और स्पर्श से रहित एक अखण्ड है और सम्पूर्ण लोक में व्याप्त हैं । सर्वप्रथम माइकेलसन वैज्ञानिक ने प्रकाश का वेग ज्ञात करते समय एक ऐसे ही अखण्ड द्रव्य की परिकल्पना की थी, जो पूर्ण प्रत्यास्थ, लचीला, अत्यंत हल्का (weightless) और प्रकाश कणों के चलाने में सहायक माध्यम की तरह व्यवहार करता है । उसका नाम ' ईथर ' दिया जो धर्म द्रव्य के गुणों से साम्यता रखता है । डॉ. ऐ. एम. एडिंग्टन ने अपनी पुस्तक " The Nature of Physical world" में तथा सापेक्षवाद के सिद्धांत का अध्ययन करते हुए उन्होंने ईथर को एक अभौतिक, लोकव्याप्त, अखण्ड द्रव्य की मौजूदगी को स्वीकार किया। ( 2 ) अधर्म द्रव्य यह धर्मद्रव्य की भांति हैं- अखण्ड, लोक में परिव्याप्त घनत्व रहित, अभौतिक (अपरमाण्विक) पदार्थ है। परंतु गुण धर्म से स्थिति में सहायक कारण है आधुनिक विज्ञान में इसकी तुलना गुरूत्वाकर्षण क्षेत्र से की जा सकती है, क्योंकि लोक की वस्तुओं में ठहराव (Medium of Rest) गुरूत्वाकर्षण के कारण स्वीकार किया गया है। (3) आकाश द्रव्य इसका काम, जीव एवं अजीव द्रव्यों को अवगाहना देना है और एक स्वतंत्र द्रव्य है। इस संदर्भ में डॉ. हेन्शा का कथन बहुत प्रासंगिक है- These four elementsspace, matter, time and media of motion are all seperate and we can not imagine that one of them could depend on another or converted into others. - लोकाकाश में सभी द्रव्य रहते हैं और अलोक में आकाश के अतिरिक्त अन्य द्रव्य-धर्म, अधर्म, काल तथा जीव द्रव्य नहीं होते हैं। आइन्स्टीन के विश्व विषयक सिद्धांत में समस्त आकाश अवगाहित है, परंतु डच वैज्ञानिक 'डी सीटर' का मानना है कि शून्य, ( पदार्थ - रहित) आकाश की विद्यमानता की सम्भावना को सिद्ध करता है। अनेकांतवाद से आइन्स्टीन का विश्व लोकाकाश की ओर संकेत करता है, जबकि डी. सीटर का विश्व आलोकाकाश (संपूर्ण रूप से शून्य) की ओर संकेत करता है। डॉ. वैज्ञानिक पोइनकेर ने सात आकाश और उसक परे क्या है, का विश्लेषण प्रस्तुत किया। उन्होंने विश्व को एक विशाल गोले के समान माना है जिसके केन्द्र में उष्ण तापमान है, जो सतह की ओर क्रमशः घटता जाता है और उसकी अंतिम सतह पर वास्तविक शून्य होता है। केन्द्र से सतह की ओर जाने पर पदार्थो For Private & Personal Use Only मई 2003 जिनभाषित 11 www.jainelibrary.org.

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