Book Title: Jinabhashita 2003 05 Author(s): Ratanchand Jain Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra View full book textPage 9
________________ यहाँ विद्यमान है जो सभा मण्डप के नाम से पपौरा का महत्त्वपूर्ण पुरातात्त्विक स्थल है। भौंयरा भू-तल स्थित अन्तः देवगृहों को बुंदेलखण्ड में भीयरा (भृ-गृह) कहते हैं। यहाँ के एक प्राचीन भौंयरे में देशी पाषाण की ढाई फुट उत्तुंग अत्यधिक भव्य ज्योतिर्मय और प्रशान्त पद्मासन मुद्रा में तीन प्रतिमायें दर्शनीय हैं। मध्यमूर्ति को छोड़ शेष दोनों पर सम्वत् 1202 आषाढ़ वदी 10 बुधवार का शिलालेख निम्नप्रकार उत्कीर्ण है सम्वत् 1202 असाढ़ वदी 10 बुधे श्री मदन वर्मा देव राज्ये भोपाल नगर वासीक गोलापूर्वान्वये साहु दुडा सुत साहु गोपाल तस्य भार्या महिणि सुतू सुतू प्रणमंति जिनेश चरणारविन्दपुण्यप्रतिष्ठाम् । अर्थात् संवत् 1202 अपाद 10 बुधवार के दिन मदन वर्मा देव के राज्य में गोलापुर्व जातीय साहुडा भोपाल निवासी, जिनके पुत्र साहु गोपाल, पत्नी उनकी माहिणी, पुत्र सान्हु पुण्य लाभ के लिये श्री जिनेश चरण कमल को नित्य प्रणाम करते हैं। चौबीसी चातुर्य जैन शासन के अनुसार प्रत्येक काल में तीर्थंकरों की संख्या चौबीस ही निर्धारित है। वर्तमान तीर्थंकरों का एक साथ सांगोपांग उत्कीर्णन चौबीसी संरचना कहलाता है । पपौरा जी में संवत् 1840 की स्थापित चौबीसी अपने काल के स्थापत्य की विशिष्ट संरचना है। तीर्थंकर चन्द्रप्रभ के एक विशिष्ट जिनालय के चारों और प्रत्येक दिशा में छह-छह मंदिर स्थापित हैं । सब मंदिरों की एक साथ और प्रत्येक की प्रत्येक तरह से पृथक-पृथक परिक्रमा का निर्धारण है। एकाकार और एकरूपता के कारण यह सृजन अपने आप में विलक्षण है। यहाँ एक शिलालेख उत्कीर्ण है (कुछ अंश अपठनीय ) सम्वत् 1840 फाल्गुन सुदी पंचम्यां 5 गुरुवासरे अश्विनी नोन्ही नक्षत्रे शुक्ल पक्ष..... औड़छौ स्थल प्रदेशे श्री मत् विक्रमादित्यस्य राज्ये प्रणमन्ति । " मेरु मण्डप जैन तीर्थों में मेरु और मानस्तम्भ दो अलग-अलग प्रलम्बवत् सर्जनायें उल्लेखनीय हैं। पपौरा में सातवें ओर चौतीसवें जिनालय मेरु के आकार में दर्शनीय हैं जो क्रमश: 1542 और सम्वत् 1545 की स्थापनायें हैं। इनमें क्रमश: 18 ऊँची लाल व श्वेत प्रस्तर की 11.5 फुट ऊँची प्रतिमायें विराजमान हैं। मानस्तम्भ यहाँ अनेक हैं। इनमें प्राचीन और नवीन संगमरमर से निर्मित मानस्तम्भ क्षेत्र के सौन्दर्य की श्री वृद्धि करते हैं। मूर्ति विग्रह और आदि तीर्थंकर सभी तीर्थकरों की मूर्तियाँ विविध प्रकार से विविध स्थानों में स्थापित हैं, किन्तु आदि तीर्थंकर आदिनाथ एवं चन्द्रप्रभ की Jain Education International मूर्तियाँ प्रमुख रूप से उपलब्ध हैं। प्रथम, तेरहवें और इक्कीसवें जिनालयों में तीर्थंकर ऋषभनाथ की प्रतिमायें विशेष रूप से भव्य, कलात्मक और गरिमामयी ढंग से शोभायमान हैं। क्षेत्र दर्शन के प्रारंभिक जिनालय में ही संवत् 1872 की 08 फुट उत्तुंग देशी पाषाण की खडगासन मूर्ति मन प्रसन्न कर देती हैं। चरणपाद के पास इन्द्र-इन्द्राणी, हंस, चकवा का कलात्मक उत्कीर्णन है। इसी तरह तेरहवें मंदिर में संवत् 1718 की देशी लाल प्रस्तर निर्मित 1 फुट ऊँची खडगासन एवं अन्य मूर्तियाँ देशी पाषाण की दर्शनीय हैं । तीर्थकर शांतिनाथ, कुन्धनाथ, अरहनाथ की मूर्तियों के साथ महावीर स्वामी और पार्श्वनाथ की रचनायें भी पपारा में उल्लेखनीय हैं। अड़तीस मन्दिर का पृष्ठभाग पपौरा नवीन निर्माण पपरा के प्राचीन शिल्प की महिमा असीम है, निकट क्षेत्र में पापट नामक प्रसिद्ध वास्तु-शिल्प की कला कृतियाँ भी संगृहीत हैं। परन्तु अभी भी उस सांस्कृतिक गौरव के संरक्षण के साथ ही नवीन निर्माण रुका नहीं हैं। भगवान् महावीर के पच्चीस सर्व निर्वाणोत्सव के पूर्व ही पपौरा में विशाल बाहुबलि जिनालय तैयार हुआ है। 1225 फुट के वृत्त में त्रिपरिक्रमा युक्त उत्तुंग वेदिका पर लगभग 15 फुट ऊँची अत्यंत कलात्मक तप: रत बाहुबलि स्वामी की खड्गासन प्रतिमा स्थापित की गई है, जो अपने आधुनिकतम सृजन की अनोखी कलाकृति है। लेकिन जितनी अच्छी पीठिका, आलय और प्राकृतिक पृष्ठभूमि पपौरा ने इसे प्रदान की है. काश मूर्ति के चयन में भी यदि उतनी ही निष्ठा बरती जाती तो बात ही कुछ और होती। मूर्ति पर उभरे सांवरे रेखांकन, दर्शन में करकराहट पैदा करते हैं पर उस आकाशी आभा के धवल सौन्दर्य में हम डिठौना मानकर ही महावीतराग को श्रद्धानत होते हैं। वर्तमान पार्श्वनाथ जिनालय भी एक भव्य रचना है। पतराखन परिकथा अन्य आध्यात्म तीर्थों की भाँति पपौरा में भी परती परिकथाएं मई 2003 जिनभाषित For Private & Personal Use Only 7 www.jainelibrary.orgPage Navigation
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