Book Title: Jinabhashita 2002 09 Author(s): Ratanchand Jain Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra View full book textPage 8
________________ गतिशील बड़े-बड़े पहाड़, उत्थान पतन के समक्ष भी हिम्मत न | की निर्वाण स्थली कुंथलगिरी सिद्ध क्षेत्र पर महाव्रतों की निर्दोषता हारती हुई सरिता के सदृश्य दक्षिण भारत से प्रारम्भ की पदयात्रा, | हेतु सल्लेखना व्रत को अंगीकार किया। 17 अगस्त सन् 1955 को अरुक-अथक । अहिंसा सत्य अपरिग्रहवाद का दिव्य संदेश जन- यम सल्लेखना रूप प्रतिज्ञा ग्रहण की, तथा सभी खाद्य पदार्थों का जन तक पहुँचाते हुए कटनी, ललितपुर, मथुरा, दिल्ली, जयपुर, | त्याग कर मात्र जल शेष रख"मृत्यु महोत्सव" की उत्साह पूर्वक आदि नगरों, महानगरों में चातुर्मास कर अनेक धार्मिक व सामाजिक | तैयारी प्रारम्भ की। देह क्षीण होती चली गयी और आत्मा पुष्ट उत्थान के कार्य आपकी महती अनुकम्पा से ही सम्भव हुए हैं। | होती चली गई, समता तो मानो आसमान को ही छू रही हो, आगम ग्रंथों की सुरक्षा हेतु ताम्रपत्र में उत्कीर्णन, बालविवाह पर निराकुल, परमशांत, आत्म परिणामों के साथ भादों सुदी दूज को प्रतिबंध, शूद्रों के उद्धार हेतु कल्याणकारी उपदेश तथा दिगम्बर | प्रातः 6 बजे आत्मा ने "महाप्रयाण" कर दिया, नश्वर देह यहीं साधुओं के विहार पर लगा प्रतिबंध सदा के लिये हटा । अनेकों | पड़ी रही और आत्मा स्वर्ग लोक पधार गई। व्यक्तियों ने आपकी वीतराग मुद्रा, सदुपदेश से प्रभावित सदा- | सत्य ही है जिन्होंने अपने जीवन को संयम सदाचरण सदा के लिये व्यसनों, पापों, कुरीतियों के अनुकरण से तिलांजलि | रूपी पुष्पों से श्रृंगारित किया, वे ही जीवन के अन्तिम क्षणों का दे दी। सहर्ष स्वागत करते हैं, और इस जीवन रूपी मंदिर पर कलशारोहण "जातस्य ही ध्रुवो मृत्युः" जिसका जन्म हुआ उसकी | करते हैं। आज महायोगी हमारे बीच नहीं है फिर क्या उनके मृत्यु निश्चित ही होगी चाहे वो महावीर, राम, कृष्ण, बुद्ध अथवा | आदर्श उनकी चर्या हमारी आत्मा को आज भी आंदोलित नहीं कोई भी महापुरूष क्यों न हो, लेकिन प्रण/व्रत को छोड़ प्राणों की | करती, सत्पथ पर चलने की प्रेरणा नहीं देती ? अवश्य देती है ! रक्षा करना दृढ़ संकल्पित महामानव को मंजूर नहीं, और जब | ऐसे महाश्रमण, बालब्रम्हचारी, महातपस्वी, उपसर्ग विजयी, दिगम्बर आंखों की ज्योति मंद पड़ने लगी, जीव जन्तुओं का समीचीन | जैनाचार्य श्री शांति सागर जी महाराज के चरणों में सम्पूर्ण विश्व रक्षण असंभव सा प्रतीत होने लगा तब देशभूषण कुलभूषण मुनियों | का बारम्बार कोटिशः नमन नमन नमन ------- एक बूढ़ी गाय की आत्मकथा श्रीमती रंजना पटोरिया तुम क्यों इतना हठ कर रही हो मुझसे? मेरे जीवन में | बछड़े बैल के रूप में किसान की सेवा कर रहे हैं । जब मैं बूढ़ी ऐसी क्या दिलचस्प बात है, जो मैं तुम्हें सुनाऊँ? पर तुम नहीं | हो गई तब एक दिन किसान ने मुझे दूसरों के हाथ बेच दिया। मानती तो मुझे अपनी जीवन कथा कहनी ही होगी, सुनो। वे लोग मुझे कसाईखाने ले आए। वहाँ बहुत सी दूसरी मेरा जन्म आज से कई वर्ष पहले एक किसान के घर | गाएँ व भेड बकरियाँ थीं। सबके चेहरे पर मौत की छाया थी। हुआ था। मैं सुबह शाम अपनी माँ का ताजा दूध पी लिया करती | परंतु कुछ भले लोग आए और मुझे व मेरे साथ वाली गायों को और उसी के साथ जंगल चरने जाया करती थी। माँ का प्यार खरीदकर ले चले। ये लोग "गौहत्या विरोधी समिति" के पाकर मैं मतवाली बन जाती और सारे जंगल को अपनी उछलकूद सदस्य थे। तभी से मैं गौशाला में रहती हूँ। मुझे यह भी पता तथा शरारतों से भर देती। मेरे बालसाथी दूसरे बछड़े थे। इस चला है कि मेरी जाति की रक्षा के लिए बड़े-बड़े आंदोलन प्रकार कुछ वर्षों से मैं सयानी हो गई और तब मेरा जीवन भी किए जा रहे हैं। लेकिन दुःख की बात यह है कि जो लोग थोड़ा बदला मेरी माँ अब बूढ़ी हो चुकी थी। अचानक एक दिन सड़कों पर जितने उत्साह से नारे लगाते हैं वे उतने उत्साह से वह मर गई। मरते समय माँ ने मुझे किसान की सेवा करने का | मेरे सामने चारा नहीं डालते। आदेश दिया। कुछ ही समय बाद मैंने एक सुंदर बछड़े को जन्म इस तरह मेरा जीवन सुखदु:ख की धूप-छाँव से गुजरा दिया। मालिक और मालकिन दोनों ही मुझे चाहते थे, मैं बहुत है। यह कितने दुःख की बात है। जिस भारत में गायों को माता दूध जो देती थी। मेरा बछड़ा उनके पुत्र के समान था। मेरे दूध से का स्थान दिया जाता है। उसी भारत में उसका कत्ल किया मालिक के यहाँ दही, मक्खन, घी की कमी नहीं रहती थी। मुझे जाता है। इस गौशाला से मैं सुखी हूँ और जीवन के आखिरी दुःख सिर्फ इस बात का था कि किसान बछड़े को पर्याप्त दूध दिन बिता रही हूँ। तुम्हारी हमदर्दी के लिए धन्यवाद । पीने नहीं देता था। कलेक्टर बँगला के सामने धीरे-धीरे मेरे दिन कटते गए। मेरी दो संतानें हैं। दोनों सिविल लाइन, कटनी (म.प्र.) 6 सितम्बर 2002 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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