Book Title: Jinabhashita 2002 09
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 15
________________ उत्तमक्षमा धर्म न अहं, न शर्म; न शर्म; भूल से परे क्षमा धर्म "क्षमा वीरस्य भूषणम्" अर्थात् क्षमा वीरों का आभूषण है इसे कहना सरल है, किन्तु जीवन में उतारना बहुत कठिन है। मनुष्य भूल करे और उसका परिमार्जन करले, भूल बड़ी है तो प्रायश्चित करले और अपने मूल स्वभाव में वापिस आ जाये तो उसे खीर कहलाने से कोई कैसे रोक सकता है। यह वीरता माँगने से नहीं आती, छीनने से नहीं मिलती, खरीदने पर प्राप्त नहीं होती बल्कि इसे गुणग्रहण के भावपूर्वक हृदय में धारण करना पड़ता है । सामान्यतया कहा जाता है कि क्रोधकषाय के अभाव का नाम क्षमा है, किन्तु यह निषेधात्मक होने से उत्तम क्षमा की कोटि में नहीं आती। जब क्षमा हृदय में स्थापित हो और क्रोधोत्पत्ति के अनेकानेक प्रसंग उपस्थित हो जायें फिर भी व्यक्ति क्षमाशील बना रहे तो क्षमा धर्म प्रभावी होता है। जैनाचार्य कहते हैं कि कोहणे जो ण तपादि, सुरणार- तिरिएहि किरमाणे वि । उपसग्गे वि रवद्दे तस्य खमाणिम्मला होदि ॥ अर्थात् देव, मनुष्य और तिर्यज्यों (पशुओं) के द्वारा घोर व भयानक उपसर्ग पहुँचाने पर भी जो क्रोध से संतप्त नहीं होता, उसके निर्मल (पवित्र) क्षमा धर्म होता है। क्षमाभाव से चित्तवृति हिंसा से दूर होती है, वैरभाव से दूर होती है, प्राणीमात्र के प्रति मित्रता एवं दया के भाव जन्म लेते हैं, करुणा की अविरल धारा दीन दुःखी जनों पर अमृत वर्षा का सिंचन कर पुष्ट बनाती है, बैर के स्थान पर निर्वैर और निर्वेद का स्वर चहुँओर गुंजायमान होने लगता है। अपमान के प्रसंग किसके जीवन में नहीं आते और मान किसका खण्डित नहीं होता? क्रोध को शान्त किये बिना कौन सुखी हो पाता है ? हिंसा की संस्कृति से कौन सा परिवार, समाज और राष्ट्र प्रतिष्ठा को प्राप्त होता है? जीवन की बगिया में फूल महकते हैं तो मुरझाते भी हैं। जो मुरझाते हैं उनका दुःख न मनाकर नये फूल उगाने की चेष्टा ही सार्थक होती है। मानवीय भूलों की सहजता पर नेपाली भाषा के प्रमुख कवि श्री विक्रमवीर थापा ने लिखा है कि - बिना वेदना की भी क्या जिन्दगी कहें जहाँ तीक्ष्ण शूल न हो । उस आदमी को भी क्या आदमी कहें जिसकी जिन्दगी में भूल न हो ॥ क्षमा मानव का स्वभाव है, यह क्रोध कषाय के अभाव में होती है। उत्तम शब्द जोड़ने से तात्पर्यं सम्यग्दर्शन सहित जानना चाहिये, क्योंकि सम्यग्दर्शन के बिना धर्म नहीं होता है। किसी भी प्रकार के कटुक वचन कहे जाने पर, अनादरित होने पर, शरीर का घात किए जाने पर भी भावों में मलिनता न आना ही उत्तम क्षमा Jain Education International डॉ. सुरेन्द्र कुमार जैन 'भारती' है। क्षमावान् व्यक्ति के मन में हमेशा यही भावना रहनी चाहिए कि 44 खम्मामि सव्व जीवाणं सव्वे जीवा खमंतु मे। मित्ती मे सव्व भूएस वैरं मज्झं ण केण वि ॥ अर्थात् मैं सब जीवों पर क्षमा करता है, सब जीव मुझे क्षमा करें। मेरी सभी से मित्रता है, मेरी किसी से भी शत्रुता नहीं है । दशलक्षण धर्म पूजन में कविवर द्यानतराय जी ने कहा है कि'उत्तम क्षमा जहाँ मन होई, अन्तर बाहिर शत्रु न कोई।" शत्रुता से रहित सुखी जीवन की लालसा किसे नहीं है, किन्तु सब क्रोध को क्रोध से जीतना चाहते हैं, हिंसा को हिंसा से पाटना चाहते हैं, वैर को वैर से काटना चाहते है; जो त्रिकाल में संभव नहीं है। क्षमा एक अनोखा धर्म है जो मर्म पर पहुँचकर संसार एवं संसार से पार शान्ति का पथ प्रशस्त करता है। क्षमा की महत्ता अप्रतिम है। नीतिकार कहते हैं कि पुष्प कोटि समं स्तोत्रं, स्तोत्र कोटि समं जपः । जयकोटि समं ध्यानं, ध्यान कोटि समं क्षमा । अर्थात् करोड़ों पुष्पों की कोमलता के समान स्तोत्र होता है। भगवान के करोड़ों स्तोत्रों के समान जप है। करोड़ों जप के समान ध्यान है और करोड़ों ध्यान के समान क्षमा है। तात्पर्य है कि एक क्षमा के होने पर करोड़ों स्तोत्र, जप एवं ध्यान करने की आवश्यकता नहीं; किंतु एक क्षमा के नहीं होने पर करोड़ों जप, तप, ध्यान निरर्थक हैं। संसार के सभी महापुरुषों ने वैभाविक परिणति कराने वाले क्रोध को छोड़कर शीतलता दायक क्षमा को अंगीकार किया तभी वे महापुरुष बन सके। गजकुमार मुनि को ससुर के द्वारा सिर पर गीली मिट्टी की बाड़ लगाकर जलते अंगारे भरकर जला दिया गया किन्तु वे समता भाव में स्थित रहे। उनके लिए आत्म वैभव ही सबकुछ था, वे शरीर के प्रति निष्ठुर एवं निर्ममत्व बने रहे। पाँचों पाण्डव तप्त लौह आभूषणों को पहनाये जाने पर शरीर को जलता हुआ देखते रहे, किन्तु परम शक्तिमान होने पर भी बदला लेने का विचार नहीं किया और सद्गति पायी। राम सीता का हरण करने पर भी रावण के प्रति निर्वैर बने रहे तथा मर्यादित जीवन जीते रहे। ये प्रसंग जीवन के ऐसे सुखद प्रसंग हैं जो परम सुख का पथ प्रशस्त करते हैं। क्षमा की साकार मूर्ति दिगम्बर संत होते हैं जो न राग करने वाले पर राग करते हैं और न द्वेष करने वाले पर द्वेष । वे तो बीतरागता के पथिक एवं वीतरागता के उपासक होते हैं। जिसने संसार को क्षमा कर क्षमा का संसार रच लिया है, संसार के बैरी क्रोध को जीत लिया है, जिसने सभी जीवों को अपना मित्र बना -सितम्बर 2002 जिनभाषित 13 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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