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पर्वराज पर्युषणः विचार के वातायन से
मुनि श्री समता सागर जी पर्वराज पर्युषण का पुन: आगमन हो रहा है। यह पर्व ही। है कि क्षमा का भाव ही संपूर्ण धर्म-साधना की मनोभूमि प्रदान नहीं पर्वराज माना गया है। पर्युषण का अर्थ है सब ओर से इन्द्रिय | करता है। इसके आने पर ही मृदुता आदि शेष धर्मों की बात
और मन की असंयत प्रवृत्ति को रोककर आत्मा के बारे में चिन्तन | आती है। क्षमा से प्रारंभ हुई यह धर्म-यात्रा आत्मरमण रूप ब्रह्मचर्य मनन करना। इस पर्युषण का ही दूसरा नाम दशलक्षण पर्व है। में परिणत हो जाती है। तथा अन्त में सामूहिक क्षमावाणी का लक्षण से किसी वस्तु को जाना पहचाना जाता है। जिन बातों से | आयोजन कर पर्व का समापन कर दिया जाता है। किसी को माफ हम अपनी आत्मा को जान पहचान सकते हैं, अनुभव कर सकते | कर देना या किसी से माफी माँग लेने मात्र का नाम क्षमा नहीं है हैं वह है दशलक्षण। इन दशलक्षणों से आत्मा के विशुद्ध धर्ममय । क्योंकि यह कार्य तो बहुत ऊपरी औपचारिक भी हो सकता है पर होने की जानकारी मिलती है। यहाँ इस बात को भी समझना इस धर्म का अर्थ तो सहनशीलता सहिष्णुता से है। प्रतिकूल जरूरी है कि यह दशलक्षण विभिन्न धर्म नहीं है बल्कि धर्म के दश परिस्थितियों के उपस्थित होने पर भी क्षमा, समता का भाव धारण अंग ही हैं। अर्थात् पृथक्-पृथक् सत्ता में नहीं किन्तु इनका सम्मिलित | करना क्षमा धर्म है। मार्दव धर्म मृदुता का प्रतीक है। धन, पद, आचार-बोध ही धर्म है। इसे इस तरह से समझना चाहिये कि धर्म | ज्ञान, बल, वैभव आदि को पाकर भी अहंकार नहीं करना तथा एक सुवासित पुष्प है और दशलक्षण उसकी पांखुरी है। धर्म एक | विनम्रता का व्यवहार करना मार्दव धर्म है। जो मन में है वही हार है और दशलक्षण उसकी मणियाँ, या धर्म एक सागर है और वाणी और कर्म में निष्कपट भाव से आचरित हो, इसी भीतर दशलक्षण उसकी लहरें। अत: कुछ भिन्न दिखाई देते हुए भी यह | बाहर की एक जैसी परिणति को आर्जव धर्म कहा है। शौच सब मूलत: अभिन्न ही है। यदि सोंचें कि धर्म के दश ही लक्षण | पवित्रता का प्रतीक है, जिसमें शारीरिक शुद्धि के साथ-साथ क्यों हैं? तो इसका अभिप्राय में इतना ही समझता हूँ कि सुना गया | संतोष रूप जल से लोभ कषाय की निवृत्ति कर आत्मशुद्धि की है कि रावण दशमुखी था, (यथार्थ में वह एकमुखी ही था, उसके | जाती है। पाँचवा धर्म सत्य का है, जिसमें परम सत्य को पाने के हार में दशमुख दिखाई देते थे) तो लगा कि जब रावण अर्थात् | लिये हित मित प्रिय वचनों का व्यवहार किया जाता है। संयम के अनीति और अधर्म के दशमुख हो सकते हैं तो नीति और धर्मरूप | धर्म में मन और इन्द्रियों के विषयों से विरत आत्म-नियंत्रण की राम के दशमुख क्यों नहीं हो सकते। पर्युषण के यह दशमुख | शिक्षा ली जाती है। प्राणि रक्षा वाली परम अहिंसक चर्या इस धर्म न्याय, नीति और धर्मरूप आतमराम के ही दशलक्षण हैं। में अपनाना पड़ती है। तप का धर्म आत्मशोधन के लिये परम
पर्युषण के इन दिनों को पर्व कहा गया है। पर्व का अर्थ | रसायन है। तपकर जैसे स्वर्ण शुद्ध हो जाता है वैसे ही कर्म अवसर, सन्धि, पोर या किसी से जोड़ने वाला बिन्दु, यह सब पर्व | कालिमा हटने से आत्मा निर्मल हो जाती है। अंतरंग और बहिरंग के ही पर्यायवाची माने गये हैं। जिन क्षणों में जीवन जीने के लिये | के भेद से 12 प्रकार के तप मुक्ति के साधन माने गये हैं। त्याग नया प्रकाश मिलता है, परमात्मा के प्रति प्रेम प्रीति का भाव प्रकृति प्रदत्त नैसर्गिक प्रक्रिया है। वृक्ष में पत्ते आते हैं, फल लगते जन्मता है। नया आनन्द उल्लास उमंग का वातावरण बनता है। हैं और झर जाते हैं। प्राणी जो श्वांस लेता है उसे छोड़ना ही पड़ता पुरानी दिनचर्या बदलती है। खानपान और विचारों में परिवर्तन का | है। राग के वशीभूत किये गये संचित द्रव्य का चतुर्विध दान में क्रम शुरु हो जाता है और मन सद्विचारों से भरकर तन का साथ देने | लगाना त्याग धर्म है। इसके बाद आने वाला आकिञ्चन्य धर्म हमें लगता है, बैर विरोध विसम्बाद से हटकर वात्सल्य मैत्री और | एकदम निर्विकल्प रखना चाहता है। मैं, मेरा और तु, तेरा की सौहार्द की अभिवृद्धि होती है वह है दशलक्षण पर्व। सच बात तो | सूक्ष्म विकल्पधारा से भी इसमें मुक्त होना पड़ता है क्योंकि त्याग यह है कि पर्व हमारी उदास टूटी हुई जिंदगी को उत्सव से जोड़कर | के बाद भी मन की यह विकल्पधारा आत्मशीलन में बाधक बनती चला जाता है। यह दशलक्षण पर्व प्रतिवर्ष माघ, चैत्र और भाद्रमास | है। इस धर्म के आते ही परमब्रह्म में रमण की स्थिति आती है। के शुक्लपक्ष की पंचमी से चतुर्दशी तक तीन बार आता है किन्तु | देह के अशुचि स्वभाव को समझते हुये विषय वासना विरक्त भाद्रमास की विशेषता ही कुछ अलग है। सुहावना मौसम, वर्षा आत्मरमणता का नाम ही ब्रह्मचर्य है। ऋतु का आगमन, समशीतोष्ण प्रकृति, तथा व्यवसाय की मंदता । प्रकृति भी हमें दशलक्षण वाले नैसर्गिक जीवन को अपनाने आदि कारणों से सारे देश में भाद्रमास का ही यह पर्व विशेष | का संदेश देती है। बीज से वृक्ष तक की यात्रा में यह धर्म का उत्सव के रूप में मनाया जाता है। क्षमा, मार्दव, आर्जव, शौच, | जीवन अवतरित होते दिखता है। क्षमाशीला मूक सहिष्णु माँ सत्य, संयम, तप, त्याग, आकिञ्चन्य और ब्रह्मचर्य रूप इन | धरती की गोद में जब विनम्रता का बीज गिरता है, अपने कठोर दशलक्षणों में क्षमा को प्रथम स्थान दिया गया है। जिसका कारण | कवच को गला कर खुद को मिटाकर माटी में मिलता है तब
-सितम्बर 2002 जिनभाषित 11
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