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बनाने के लिए रास्ते में आने वाले उपयुक्त स्थानों की सूची बनाई । ऐसे ही योजना बनाते प्रातः काल हो गया। आचार्यश्री सामायिक के बाद विहार के लिए तैयार हुए। जयपुर समाज के भाई-बहिन एवं वैद्य सुशील कुमार जी आए। वैद्य जी ने हमसे पुन: कहा कि उनकी कल कही हुई बात का पूरा ध्यान रखा जाये। आचार्यश्री ने जयपुर की जनता द्वारा किए जा रहे घोषों के बीच विहार प्रारंभ किया । इस को हम चमत्कार नहीं तो क्या कहें कि आकाश में कहीं बादल दिखाई नहीं देते हुए भी एकाएक आचार्यश्री के विहार के समय बादल छा गए और रिमझिम बरसात प्रारंभ हो गई। लगता था जैसे जयपुर से किशनगढ़ के पूरे विहारकाल में इन्द्र ने आगे-आगे वर्षा की व्यवस्था की हो। एक-दो किलोमीटर तक भीड़ कम हो गई। हम तथा अजमेर के युवक योजना की क्रियान्विति के लिए उचित अवसर की प्रतीक्षा कर रहे थे। मैंने आचार्य श्री से प्रार्थना की कि वे वैद्य जी की राय के अनुसार एक साथ अधिक दूर नहीं चलें और अभी 5-7 मिनिट विश्राम कर लेवें। हमने सड़क के किनारे पाटा लगा दिया था। डोली के सामान की जीप साथ चल रही थी। आचार्य श्री ने विश्राम स्वीकार नहीं किया। कहने लगे श्रमण श्रम करते हैं, विश्राम नहीं । आचार्यश्री आगे बढ़ते रहे और हम सब लोग असहाय से बगलें झाँकने लगे। पुनः चार-पाँच किलोमीटर चलने तक तनिक विश्राम की प्रार्थना की, वह भी नहीं सुनी गई। हम सब बहुत घबरा गए। वैद्य जी की चेतावनी बार-बार याद आ रही थी। थोड़ी दूर चलने पर मैंने आचार्यश्री से पुनः वैद्य जी द्वारा एक-दो किलोमीटर से अधिक नहीं चलने की बात कही और पुनः विश्राम की प्रार्थना की। आचार्यश्री ने कहा वैद्य जी को अपनी बात कहने दो और मुझे अपना काम करने दो। आचार्य श्री के चरण बिना रूके बढ़ते रहे। आचार्यश्री ने हमको डोली तैयार करने का एवं उन्हें डोली पर बैठाने का बिल्कुल अवसर ही नहीं दिया और गंतव्य की ओर उनके चरण बढ़ते रहे। हम किंकर्तव्यविमूढ़ से एक दूसरे की ओर देखते रहे और चलते रहे। डोली में जबर्दस्ती पकड़कर बैठा देने की बात तो बहुत दूर रही परंतु डोली में बैठने की प्रार्थना करने का भी साहस हम में से कोई नहीं जुटा सका। आचार्यश्री के आत्मबल और आत्म-तेज के आगे सभी भीगी बिल्ली बने चुपचाप साथ-साथ चलते रहे। पाठक गण अनुमान नहीं लगा पायेंगे कि उस सुबह डेढ़ माह की देह तोड़ भीषण टायफाइड से पीड़ित आचार्यश्री पहली बार कितना चल लिए होंगे। आप अधिक से अधिक 5-7-8-10 किलोमीटर का अनुमान लगा रहे होंगे। किंतु सच मानिए उस सुबह आचार्य श्री जयपुर से 18 किलोमीटर चलकर भांकरोटा आए। हम लोग बहुत चिंतित थे। हमने वैद्यजी से कहा "वैद्यजी हम क्या कोई भी, संकल्प के पक्के आचार्यश्री के आगे कुछ नहीं कर सकता था।" वैद्य जी कहने लगे “ऐसे संतों का जीवन तो असाधारण है जिस पर साधारण जीवन पर लागू होने वाले आयुर्वेद के सिद्धांत पूर्णतः लागू नहीं होते।" बैद्य जी ने यह
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भी कहा कि मेरे ज्ञान के अनुसार रोगियों के इतिहास की पहली घटना है कि जब डेढ़ माह से तीव्र टायफाइड से पीड़ित रोगी, पहली बार अठारह किलोमीटर तो बहुत होता है एक किलोमीटर भी पैदल चल सका हो। यह तो लोकोत्तर महात्मा के जीवन की, लोकोत्तर घटना है। अंत में गर्भ कल्याणक के दिन सांयकाल किशनगढ़ के निकट आचार्य श्री पहुँच ही गए। वह किशनगढ़ का पंच कल्याणक महोत्सव आचार्य श्री का सान्निध्य पा ऐतिहासिक और अभूतपूर्व बन गया। ऐसे फिर मौत हार गई और आचार्य श्री जीत गए ।
पाँचवी बार अमरकंटक के पास पेंड्रा रोड़ में आचार्य श्री पर जानलेवा हरपीज रोग का आक्रमण हुआ। रोग ने पूरी तीव्रता ग्रहण की। उठना बैठना भी कठिन । आहार औषधि लेना भी कठिन । प्रारंभ में रोग का निदान नहीं हो सका। बाद में जब निदान हुआ तो रोग अपने चरम उत्कर्ष पर था। आठ-दस दिन अत्यंत कठिनाई के रहे। धीरे-धीरे रोग शमन हुआ। परंतु फिर भी आगामी कुछ समय तक रोग का प्रभाव रहता है और पूर्ण स्वस्थता में कुछ माह लग जाते हैं। सभी लोग यह समझते थे कि अभी आचार्य श्री पैदल नहीं चल पायेंगे और उन्हें पैंड्रा रोड ही ठहरना पड़ेगा। किंतु लोकोत्तर संत की लोकोत्तर वृत्ति किसको आश्चर्य में नहीं डाल देगी कि आचार्यश्री अपूर्ण स्वस्थ दशा में ही बिहार कर 45 किलोमीटर का लम्बा कठिन पहाड़ी मार्ग चलकर अमरकंटक पहुँच गए। और ऐसे फिर मौत हार गई।
पू. आचार्य श्री के जीवन की अनेक घटनाएँ और उनकी चर्या उनकी लोकोत्तरता को सिद्ध करती है भयंकर रोगों के उक्त पाँच जान लेवा अवसरों पर जिस प्रकार मौत के मुँह तक पहुंचकर पुन: स्वस्थ हुए, इससे सिद्ध होता है कि आचार्य श्री का जीवन में संघ का विस्तार एवं गण पोषण का महान कार्य करना शेष था इसीलिए मौत हर बार हार गई। जन्म के साथ मृत्यु तो निश्चित है किंतु इस महान संत की आज्ञा लेकर समाधि साधना के साथ ही मौत आयेगी नही तो अपना नियोजित प्रभावना कार्य पूर्ण होने तक असामयिक अनचाही आई मौत पहले भी हारी है और आगे भी हारेगी।
लुहाड़िया सदन, जयपुर रोड़ मदनगंज किशनगढ़- 305801 जिला - अजमेर (राज.)
मुक्तक
योगेन्द्र दिवाकर
कोशिश से धूल में भी फूल मिल जाता है, कोशिश से अवसर भी अनुकूल मिल जाता है। सागर की लहरों से हार नहीं माने तो, तैरने से उसका भी कूल मिल जाता है।
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-सितम्बर 2002 जिनभाषित 17
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