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... और मौत हार गई
पं. मूलचन्द्र लुहाड़िया
इस भोग प्रधान युग में जब कि चारों ओर उपभोक्तावादी प्रथम बार मौत का आक्रमण आचार्यश्री के बुंदेलखंड की आंतरिक रूचि और प्रवृत्ति को प्रोत्साहित करने वाले सबल निमित्त | भूमि पर प्रथम प्रवेश के समय सतना में हुआ। मोह को तब यह प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं, आधुनिक शिक्षा प्राप्त युवक-युवतियों | अवश्य आभास हुआ होगा कि इस संत को बुंदेलखंड में प्रवेश का बड़ी संख्या में संयम के दुरूह मार्ग पर कदम बढ़ाने के लिए और बुंदेलखंड में प्रवास उसके लिए विशेष संकट का कारण आकृष्ट होना एक अतीव आश्चर्यकारी घटना के रूप में इतिहास | बनेगा। सतना में तीव्र ज्वर का प्रकोप हुआ। साधारणतया यह में स्थान पायेगी। इस घटना के मुख्य सूत्रधार हैं युग प्रवर्तक बात सहज समझ में नहीं आती थी कि ज्वर की इतनी तीव्रता में भी आचार्य विद्यासागर जिनकी मोहक प्रशांत वीतराग मुद्रा के दर्शन | आचार्य श्री अपने परिणामों में समता कैसे बनाए रखते थे। अस्वस्थ मात्र से व्यक्ति के हृदय में वैराग्य भावना अंकुरित हो आंदोलित अवस्था में ही वे सतना से कटनी आ गए। शहरों के सभी प्रकार होने लगती है। बिना कुछ कहे भी उनकी चमत्कारी मुद्रा वह सब के प्रदूषण युक्त वातावरण को अपनी आध्यात्मिक साधना के कुछ कह देती है जो उपदेशों के द्वारा नहीं कहा जा सकता। क्या अनुकूल नहीं जानकर आचार्यश्री ने कुंडलपुर वर्षायोग स्थापित इसमें अधिक आश्चर्य की बात और कोई हो सकती है कि जिन | करने का मन पहले से ही बना लिया लगता था। कटनी में एक कॉलेज शिक्षा प्राप्त युवक-युवतियों के माता-पिता एवं गुरुजनों | और संकट आ गया। आचार्यश्री के प्रथम शिष्य और गृहस्थ के प्रेम, रोष, झिड़की, धमकी भरे उपदेश आदेश भी जिनकी | जीवन के लघु भ्राता क्षुल्लक समयसागर जी उनसे भी अधिक उच्छृखल भोगवादी जीवन प्रणाली में तनिक भी सुधार नहीं ला | अस्वस्थ हो गए। अत: कटनी से विहार करने की परिस्थितियाँ पाते हैं, वहाँ उन युवक-युवतियों को इस युगांतरकारी संत की पूर्णतः प्रतिकूल थीं, किंतु इस दृढ़ संकल्पी पुरुषार्थी महात्मा को, प्रथम झलक मात्र अंतचिंतन के लिए विवश कर देती है और वे | परिस्थितियों की प्रतिकूलता अपनी लक्ष्य पूर्ति से कब रोक सकी संत के चरण कमलों के समीप भौरों की तरह मंडराने लगते हैं। | है। और तीव्र ज्वर की अवस्था में ही वन के अनुरूप तीर्थ कुंडलपुर जहाँ युवक-युवतियों को सदाचार के साधारण नियमों को स्वीकार | की ओर विहार कर गए। अपनी अस्वस्थता को कदाचित् न सही करने के लिए अनेक आग्रहपूर्ण उपदेश भी विशेष अनुकूल परिणाम किंतु अपने प्रथम शिष्य और लघु भ्राता की अस्वस्थता भी उनको प्राप्त नहीं करा पाते, वहीं पू. आचार्यश्री की वैराग्य की सविशेष कटनी में बांध नहीं सकी। जिस दिन आचार्यश्री कुंडलपुर पहुंचे मौन उपदेश देने वाली वीतराग मुद्रा का ऐसा जादुई प्रभाव उन | | उसके दूसरे दिन मैं भी किशनगढ़ से कुंडलपुर पहुँचा। कटनी के युवक-युवतियों के हृदयों पर पड़ता है कि वे आजीवन ब्रह्मचर्य सिंघई परिवार की सेठानी जी के आंसुओं से भीगे वे शब्द आज जैसे असिधारा व्रत प्रदान करने के लिए आचार्यश्री से आग्रह भी मेरे मन में गूंजने लगते है "भैय्या जी कैसे भी करके आचार्यश्री करने लगते हैं। साधना के अभ्यास के बिना प्रारंभ में ही आजीवन | को वापिस कटनी ले चलो। यहाँ कुंडलपुर में सब कुछ प्रतिकूल व्रत देने के लिए आचार्यश्री के राजी नहीं होने पर वे दुखी होते हैं, | है और कुछ भी अनुकूल नहीं है। यहाँ मच्छर है, जलवायु आर्द्र किंतु अंत में गुरु आज्ञानुसार सावधि व्रत की साधना के अभ्यास | है, यहाँ दूध नहीं है, सब्जी नहीं है, वैद्य नहीं है, औषधि नहीं है। के पश्चात् आजीवन व्रत ग्रहणकर संयम की शीतल छाया तले | यहाँ चातुर्मास किसी भी तरह उपयुक्त नहीं रहेगा। किंतु इस आत्म शांति को विकसित करते हुए जीवन सफल बना रहे हैं। । अलौकिक महात्मा को प्रतिकूलताओं की कब चिंता रही। प्रत्युत
इस अलौकिक संत आचार्य विद्यासागर का व्यक्तित्व ऐसी उन्होंने तो प्रतिकूलताओं को ही अनुकूलता समझा है।" जीविताशा ही अनेक मुद्रा, वाणी और लेखनी की लोकोत्तर विशेषताओं का धनाशा च येषां तेषां विथि विधिः। किं करोषि विधिस्तेषां येषां पुंज रहा है। संभवतः युगजयी शैतान (मोह) को यह महान आशा निराशता॥ और ऐसे दृढ़ संकल्प शक्ति के कारण प्रतिकूलताएं साधक अपनी सत्ता साम्राज्य की एकछत्रता में बाधक प्रतीत हुआ स्वतः अनुकूलताओं में बदल गईं... और मौत हार गई।
और उसने इस बाधा को दूर करने के लिए मौत से सहायता द्वितीय बार नैनागिरि सिद्धक्षेत्र पर भाद्रपद मास में आचार्यश्री मांगी। लगता है मौत को मोह पर दया आई और उसने मोह की | पर रोग ने भीषण आक्रमण किया। स्थिति इतनी गंभीर हो गई कि सहायता के लिए अपनी पूरी शक्ति के साथ आचार्यश्री पर आक्रमण हम लोग बुरी तरह घबरा गए। सब उपचार विफल हो रहे थे। दो किया। भीषण आक्रमण के बाद प्राप्त हुई असफलता से मौत | तीन दिन पहले ही पं. जगन्मोहन लाल जी शास्त्री पर्युषण पर्व में निराश हुई और एक दो बार नहीं लगातार 5 बार आक्रमण करती प्रवचन करने इन्दौर गए थे। आचार्यश्री ने कहा -"मेरी समाधि रही, किंतु हर बार असफल रही और ऐसे मौत हार गई। | का समय आ गया है तुरंत पंडित जी को बुलाओ।" उसी समय
-सितम्बर 2002 जिनभाषित 15
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