Book Title: Jinabhashita 2002 09
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

View full book text
Previous | Next

Page 23
________________ सर्वार्थसिद्धि अध्याय -1 के 27 वें सूत्र की टीका में इस | गाथार्थ - जो रत्नत्रय सहित, निरंतर धर्म का उपदेश देने प्रकार कहा है:-"रुपिषु इत्यनेन पुद्गला: पुद्गल द्रव्यसंबन्धाश्च | में तत्पर है, वह आत्मा उपाध्याय है, मुनिवरों में प्रधान है, उसे जीवा: परिगृह्यन्ते" सूत्र में कहे गये "रुपिषु" इस पद से पुद्गलों | नमस्कार हो। का और पुद्गलों से बद्ध जीवों का ग्रहण होता है। श्री राजवार्तिक अ.9 सूत्र 24 की टीका में इस प्रकार कहा वृहदद्रव्यसंग्रह गाथा-7 की टीका में ब्रह्मदेव सूरी ने इस | है -“विनयेनोपेत्य यस्माद् व्रतशीलभावनाधिष्ठानादागमं प्रकार कहा है:- हिन्दी अर्थ - "ववहारा मुत्ति' क्योंकि जीव श्रुताख्यमधीयते इत्युपाध्यायः" जिस व्रत शील भावनाशाली अनुपचरित असद्भूत व्यवहार नय से मूर्तिक है, अत: कर्म बन्ध महानुभाव के पास जाकर भव्यजन विनयपूर्वक श्रुत का अध्ययन होता है। जीव मूर्तिक किस कारण से है? "बंधादो" अनन्त | करते हैं वे उपाध्याय हैं। ज्ञानादि की उपलब्धि जिसका लक्षण है ऐसे मोक्ष से विलक्षण सर्वार्थसिद्धि 309, सूत्र 24 की टीका में इस प्रकार कहा अनादि कर्म बन्धन के कारण जीव मूर्त है। है-"मोक्षार्थ शास्त्रमुपेत्य यस्मादधीयत इत्युपाध्याय:" अर्थ-मोक्ष तत्त्वार्थसार 5/16-19 में आ. अमृतचन्द्र स्वामी ने इस | के लिए पास जाकर जिससे शास्त्र पढ़ते हैं वह उपाध्याय कहलाता प्रकार कहा है-"अमूर्तिक आत्मा का मूर्तिक कर्मों के साथ बन्ध असिद्ध नहीं है, क्योंकि अनेकान्त से आत्मा में मूर्तिकपना सिद्ध आ. कुन्दकुन्द ने भी नियमसार गाथा-74 में इस प्रकार है। कर्मों के साथ अनादिकालीन नित्य संबंध होने से आत्मा और | कहा है- रयणत्तयसंजुत्ता जिणकहियपयत्थदेसया सूरा। कर्मों में एकत्व हो रहा है। इसी एकत्व के कारण अमूर्त आत्मा में | णिक्कंखभावसहिया उवज्झायाएरिसा होति । अर्थ-रत्नत्रय से संयुक्त भी मूर्तत्व माना जाता है। जिस प्रकार एक साथ पिघलाए हुए | जिनकथित पदार्थों में शूरवीर उपदेशक और नि:कांक्ष भाव सहित, स्वर्ण तथा चांदी का एक पिण्ड बनाए जाने पर परस्पर प्रदेशों के | ऐसे उपाध्याय होते हैं। मिलने से दोनों के एकरूपता मालूम होती है। आत्मा के मूर्तिक उपर्युक्त प्रमाणों के अनुसार उपाध्याय परमेष्ठी के विशेष मानने में एक युक्ति यह भी है कि उस पर मदिरा (मूर्त पदार्थ) का | 25 गुणों से रहित, अध्ययन करने-कराने में तत्पर तथा आचार्य प्रभाव देखा जाता है इसलिए आत्मा मूर्तिक है। क्योंकि मदिरा | द्वारा उपाध्याय पद पर दीक्षित मुनिराज को भी उपाध्याय परमेष्ठी अमूर्तिक आकाश में मद को उत्पन्न नहीं कर सकती। | मानना आगम सम्मत है। वर्तमान में ऐसे उपाध्याय परमेष्ठी का श्री वीरसेन स्वामी ने धवल पु. 13/11, 333 तथा धवल अभाव नहीं मानना चाहिए। पु. 15/33-34 में इस प्रकार कहा है-संसार अवस्था में जीवों में जिज्ञासा- क्या शास्त्रों में ऐसे प्रमाण मिलते हैं कि दंतमंजन अमूर्तपना नहीं पाया जाता। इसीलिए "जीव द्रव्य अमूर्त है तथा | करके ही मंदिर जाना चाहिए? पुद्गल द्रव्य मूर्त फिर इनका बंध कैसे हो सकता है" यह प्रश्न ही समाधान -श्री भव्यमार्गोपदेश उपासकाध्ययन में भट्टारक नहीं उठता। प्रश्न-यदि संसार अवस्था में जीव मूर्त है तो मुक्त होने | जिनचंद्रसूरी ने इस प्रकार कहा है : पर वह अमूर्तपने को कैसे प्राप्त हो सकता है? उत्तर-यह कोई दोष दन्तकाष्ठं तदा कार्य गण्डूषैः शोधयेन्मुखम्। नहीं है क्योंकि जीव में मूर्तपने का कारण कर्म है, कर्म का अभाव तदा मौनं प्रतिग्राह्यं यावदेव विसर्जनम्॥347 ।। होने पर तद्जनित मूर्तत्व का भी अभाव हो जाता है और इसलिए क्षेत्र प्रवेशनाद्यैश्च मन्त्रैः क्षेत्रप्रवेशनम्। सिद्ध जीवों के अमूर्तपने की सिद्धि हो जाती है। इस प्रकार संसारी ततः ईर्यापथं शोध्यं पश्चात् पूजां समारभेत् ॥348 ।। जीव व्यवहारनय से मूर्त है और निश्चयनय से अमूर्त है यह सिद्ध अर्थ- देव पूजा से पूर्व काष्ठ की दातुन करनी चाहिए और होता है। जल के कुल्लों द्वारा मुख की शुद्धि करनी चाहिए। तत्पश्चात् देव जिज्ञासा- जैन आगम में उपाध्याय परमेष्ठी के 25 मूलगुण | विसर्जन करने तक मौन ग्रहण करना चाहिए ॥347 ॥ जिनमंदिर में होते हैं। वर्तमान में उन 25 मूलगुणों वाला या उनमें से एक प्रवेश करने आदि के मंत्रों का उच्चारण करते हुए धर्म क्षेत्र में मूलगुण वाला भी कोई मुनि दुष्टिगोचर नहीं होता? तो क्या प्रवेश करना चाहिए। पश्चात् ईर्यापथ की शुद्धि करके पूजा को वर्तमान में उपाध्याय परमेष्ठी का अभाव मानना चाहिए। प्रारंभ करें ।।348॥ समाधान - जैन आगम में उपाध्याय परमेष्ठी की परिभाषा । श्री धर्मसंग्रह श्रावकाचार (पं. मेघावी) में इस प्रकार करते हुए आचार्यों ने 25 मूलगुणधारी के अलावा जो पठन-पाठन | कहा हैएवं संघ को उपदेश आदि देने का कार्य करते हैं और आचार्यों मत्वेति चिकुरान्मृष्टवा दन्तामपि गृहव्रती। द्वारा उपाध्याय पद पर नियुक्त किये जाते हैं उनको भी उपाध्याय देशे निर्जन्तुके शुद्धे प्रमृष्टे प्रागुदङ्मुखः ।।50॥ परमेष्ठी कहा है। द्रव्यसंग्रह गाथा-53 में इस प्रकार कहा है गालितैर्निमलैीरेः सन्मन्त्रेण पवित्रितैः। जो रयणत्तयजुत्तो णिच्चं धम्मोवदेसणे णिरदो। प्रत्यहं जिनपूजार्थं स्नानं कुर्याद्यथाविधि ॥51 ।। सो उवज्झाओ अप्पा जदिवरवसहो णमो तस्स ॥3॥ | अर्थ- जिनपूजादि में स्नान करने को निर्बाध समझकर -सितम्बर 2002 जिनभाषित 21 समा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36