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दिन नहीं
है।
तपस्या साथ थी। उस तपस्या का फल, चाहते तो मीठा भी हो । प्राप्त कर सकता है। मान को जी सकता है। इतना संयम तो कषायों सकता था किन्तु वे द्वारिका को जलाने में निमित्त बन गये। दिव्यध्वनि की जीतने के लिए आवश्यक ही है। सम्यग्दर्शन तो जीव जन्म से के माध्यम से जब उन्हें ज्ञात हुआ कि मेरे निमित्त से बारह वर्ष के ही लेकर आ सकता है लेकिन मुक्ति पाने के लिये सम्यग्दर्शन के बाद द्वारिका जलेगी तो यह सोचकर वे द्वारिका से दूर चले गये कि | साथ जो विशुद्धि चाहिये वह चारित्र के द्वारा ही आयेगी। वह कम से कम बारह वर्ष तक अपने को द्वारिका की ओर जाना ही | अपने आप आयेगी, ऐसा भी नहीं समझना चाहिये। आचार्यों ने नहीं है। समय बीतता गया और बारह वर्ष बीत गये होंगे-ऐसा कहा है कि आठ साल की उम्र होने के उपरान्त कोई चाहे तो सोचकर वे विहार करते हुए द्वारिका के समीप एक बगीचे में सम्यग्दर्शन के साथ चारित्र को अङ्गीकार कर सकता है। लेकिन आकर ध्यानमग्न हो गये। वहीं यादव लोग आये और द्वारिका के | चारित्र अङ्गीकार करना होगा, तभी मुक्ति का मार्ग प्रशस्त होगा बाहर फेंकी गई शराब को पानी समझकर पीने लगे। मदिरापान | और मुक्ति मिलेगी। कषायों पर विजय पाने योग्य समता परिणाम का परिणाम यह हुआ कि यादव लोग नशे में पागल होकर द्वीपायन चारित्र को अङ्गीकार किये बिना आना/होना संभव नहीं है। आत्म मुनि को देखकर गालियाँ देने लगे, पत्थर फेंकने लगे। जब बहुत की अनन्त शक्ति भी सम्यक्चारित्र धारण करने पर ही प्रकट होती देर तक यह प्रक्रिया चलती रही और द्वीपायन मुनि को सहन नहीं हुआ तो तैजस ऋद्धि के प्रभाव से द्वारिका जलकर राख हो गयी। एक बात और कहूँ कि सभी कषायें परस्पर एक दूसरे के तन तो सहन कर सकता था लेकिन मन सहन नहीं कर सका और | लिए कारण भी बन सकती हैं। जैसे मान को ठेस पहुँचती है तो क्रोध जागृत हो गया।
क्रोध आ जाता है। मायाचारी आ जाती है। अपने मान की सुरक्षा महाराज श्री (आचार्य श्री ज्ञानसागर जी) ने एक बार | का लोभ भी आ जाता है। एक समय की बात है कि एक व्यक्ति उदाहरण दिया था। वही आपको सुनाता हूँ। एक गाँव का मुखिया | एक सन्त के पास पहुँचा। उसने सुन रक्खा था कि सन्त बहुत था। सरपंच था। उसी का यह प्रपञ्च है। आप हँसिये मत । उसका | पहुँचे हुए हैं। उसने पहुँचते ही पहले उन्हें प्रणाम किया और प्रपञ्च सबको दिशाबोध देने वाला है। हुआ यह कि एक बार | विनयपूर्वक बैठ गया। चर्चा वार्तालाप के बाद उसने कहा कि उससे कोई गलती हो गयी और उसे दंड सुनाया गया। समाज | आप हमारे यहाँ कल आतिथ्य स्वीकार करिये। अपने यहाँ हम गलती सहन नहीं कर सकती ऐसा कह दिया गया और लोगों ने आपको कल के भोजन के लिय निमन्त्रित करते हैं। सन्त जी इकट्ठे होकर उसे घर जाकर सारी बात कह दी। घर के भीतर | निमन्त्रण पाने वाले रहे होंगे, इसलिए निमन्त्रण मान लिया। देखा उसने भी स्वीकार कर लिया कि गल्ती हो गयी, मजबूरी थी। पर | निमन्त्रण 'मान' लिया, इसमें भी 'मान' लगा है। इतने से काम नहीं चलेगा। लोगों ने कहा कि यही बात मञ्च पर दूसरे दिन ठीक समय पर वह व्यक्ति आदर के साथ उन्हें आकर सभी के सामने कहना होगी कि मेरी गलती हो गयी और | घर ले गया, अच्छा आतिथ्य हुआ। मान-सम्मान भी दिया। अन्त मैं इसके लिए क्षमा चाहता हूँ। फिर दण्ड के रूप में एक रुपया में जब सन्त जी लौटने लगे तो उस व्यक्ति ने पूछ लिया कि देना होगा। एक रुपया कोई मायने नहीं रखता। वह व्यक्ति करोड़ आपका शुभ नाम मालूम नहीं पड़ सका। आपका शुभ नाम मालूम रुपया देने के लिए तैयार हो गया लेकिन कहने लगा कि मञ्च पर | पड़ जाता तो बड़ी कृपा होती। सन्त जी ने बड़े उत्साह से बताया आकर क्षमा मांगने तो सम्भव नहीं हो सकेगा। मान खण्डित हो कि हमारा नाम शान्तिप्रसाद है। वह व्यक्ति बोला बहुत अच्छा जायेगा। प्रतिष्ठा में बट्टा लग जाएगा। आज तक जो सम्मान मिलता नाम है। मैं तो सुनकर धन्य हो गया, आज मानों शान्ति मिल गयी। आया है वह चला जायेगा।
वह उनको भेजने कुछ दूर दस बीस कदम साथ गया उसने फिर सभी संसारी जीवों की यही स्थिति है। पाप हो जाने पर, | से पूछा लिया कि क्षमा कीजिये, मेरी स्मरण शक्ति कमजारे है। मैं गलती हो जाने पर कोई अपनी गलती मानने को तैयार नहीं है। भूल गया कि आपने क्या नाम बताया था? सन्त जी ने उसकी ओर असल में भीतर मान कषाय बैठा है वह झुकने नहीं देता। पर हम | गौर से देखा और कहा कि शान्तिप्रसाद, अभी तो मैंने बताया था। चाहें तो उसकी शक्ति को कम कर सकते हैं, और चाहें तो अपने | वह व्यक्ति बोला हाँ ठीक-ठीक ध्यान आ गया आपका नाम परिणामों से उसे संक्रमित (ट्रांसफर्ड) भी कर सकते हैं। उसे | शान्तिप्रसाद है। अभी जरा दूर और पहुँचे थे कि पुन: व्यक्ति बोला अगर पूरी तरह हटाना चाहें तो आचार्य कहते हैं कि एक ही मार्ग | कि क्या करूँ? कैसे मेरा कर्म का तीव्र उदय है कि मैं भूल-भूल हैं -समता भाव का आश्रय लेना होगा। अपने शान्त और मुदृ | जाता हूँ। आपने क्या नाम बताया था? अब की बार सन्त जी ने स्वभाव का चिन्तन करना होगा। यही पुरुषार्थ मान-कषाय पर | घूरकर उसे देखा और बोले शान्तिप्रसाद, शान्तिप्रसाद-मैंने कहा विजय पाने के लिए अनिवार्य है।
ना। वह व्यक्ति चुप हो गया और आश्रय पहुँचते-पहुँचते जब आत्मा की शक्ति और कर्म की शक्ति इन दोनों के बीच | उसने तीसरी बार कहा कि एक बार और बता दीजिये आपका देखा जाये तो आत्मा अपने पुरुषार्थ के बल से आत्म-स्वरूप के | शुभ नाम। उसे तो जितनी बार सुना जाय उतना ही अच्छा है। चिन्तन में मान कषाय के उदय में होने वाले परिणामों पर विजय | अब सन्त जी की स्थिति बिगड़ गयी, गुस्से में आ गये। बोले क्या
नाम 100 जिनभाषित 9
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