Book Title: Jinabhashita 2002 04
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 7
________________ "जिनभाषित' का फरवरी, 2002 का अंक प्राप्त हुआ। | है, जो उनके आगमचक्षु होने का प्रमाण है और उनके गम्भीर सभी लेख और सम्पादकीय जैन समाज और संस्कृति के लिये | अध्ययन तथा विद्वत्ता का परिचायक है। कभी 'जिज्ञासा-समाधान' अत्यन्त उपयोगी और मार्गदर्शक हैं। पत्रिका का स्तर इसी तरह | ग्रन्थ का रूप धारण कर जैन साहित्य की श्रीवृद्धि अवश्य करेगा। बना रहा, तो निश्चित रूप से 'जिनभाषित' जैन पत्र-पत्रिकाओं में | फरवरी, 2002 के अंक में संस्कृत दर्शनपाठ का हिन्दी अनुवाद सर्वोच्च स्थान पर जा पहुँचेगा। इसके लिए आप जैसे सम्पादक | पढ़ने को मिला, जिसे ब्र. महेशजी ने किया है। प्रयास स्तुत्य है, और जिनभाषित का पूरा समाज बधाई और धन्यवाद का पात्र है। | परन्तु कहीं-कहीं भावों का प्रस्फुटन संस्कृत भाषा के अनुरूप विनोद कुमार तिवारी नहा हुआ है। रीडर- इतिहास विभाग दसवें पद्य में 'सदा मेऽस्तु' को ध्यान में रखने पर अग्रिम यू.आर.कॉलेज, रोसड़ा समस्तीपुर (बिहार) | पद्य में - 'जिनभाषित' धार्मिक पत्रिका विद्वत्तापूर्ण लेखन और कुशल जिनधर्मविनिर्मुक्तो मा भवेच्चक्रवर्त्यपि। सम्पादन में प्रकाशित हो रही है। मुझे पाँच अंक प्राप्त हुए हैं। पाँचों स्याच्चेटोऽपि दरिद्रोऽपि जिनधर्मानुवासितः।। अंकों में अनेक विशिष्ट सामग्रियाँ हैं, जो जिनवाणी, जैनागमों और ऐसा पाठ होना चाहिए एवं तदनुसार हिन्दी अर्थ होना पुराणों से पूर्णतया सम्मत हैं। प्रत्येक सम्पादकीय गम्भीर चिन्तन | चाहिए। प्राचीन पाठ ऐसा ही है। अन्तिम पद्य-'प्रतिभासते मे' भी एवं समाज को दिशानिर्देश देने वाला है, जिससे जैन समाज के | इसी ओर संकेत करता है। वर्तमान वातावरण और पर्यावरण में सुधार अपेक्षित है। इत्यलम्। प्रायः प्रत्येक अंक में आदरणीय पं. रतनलाल जी बैनाड़ा प्रो. हीरालाल पाण्डे का 'जिज्ञासा-समाधान' आगम और पुराणसम्मत पढ़ने को मिलता 7, लखेरापुरा, भोपाल (म.प्र.) वर्णी वचनामृत : पुरुषार्थ की वाणी डॉ. श्रीमती रमा जैन 1. बाह्य क्रियाओं का आचरण करते हुए आभ्यन्तर की | सकते, परन्तु उदय में आये रागदिकों द्वारा हर्ष-विषाद न करें। |ओर दृष्टि रखना ही प्रथम पुरुषार्थ है। यह हमारे पुरुषार्थ का कार्य है। 2. पुरुषार्थी वही है, जिसने राग-द्वेष को नष्ट करने के 8. अभिप्राय में मलिनता न होना ही पुरुषार्थ की विजय लिये विवेक प्राप्त कर लिया है। 3. घर छोड़कर तीर्थस्थान में रहने में पुरुषार्थ नहीं, पण्डित त्याग की महत्ता महानुभावों की तरह ज्ञानार्जन कर जनता को उपदेश देकर सुमार्ग 1. परिग्रह का जो त्याग आभ्यन्तर से होता है, वह में लगाना पुरुषार्थ नहीं, दिगम्बर वेष भी पुरुषार्थ नहीं। सच्चा कल्याण का मार्ग होता है और जो त्याग ऊपरी दृष्टि से होता है पुरुषार्थ तो वह है कि उदय के अनुसार जो रागादिक हों, वे हमारे | वह क्लेश का कारण होता है। | ज्ञान में भी आवं, उनकी प्रवृत्ति भी हममें हो, किन्तु हम उन्हें 2. अधिक संग्रह ही संसार का मूल कारण है। कर्मज भाव समझकर इष्टानिष्ट कल्पना से अपनी आत्मा की रक्षा 3. घर को त्याग कर मनुष्य जितना दम्भ करता है, वह कर सकें। अपने को प्रायः उतने ही जघन्य मार्ग में ले जाता है। अतः जब 4. पुरुषार्थ करना है तो उपयोग को निरन्तर निर्मल करने | तक आभ्यन्तर कषाय न जावे, तब तक घर छोड़ने से कोई लाभ का पुरुषार्थ करो। नहीं। ____5. राग-द्वेष को बुद्धिपूर्वक जीतने का प्रयत्न करो, केवल 4. उस दान का कोई महत्त्व नहीं, जिसके करने पर | कथा और शास्त्र-स्वाध्याय से ही ये दूर नहीं हो सकते। आवश्यक लोभ न जावे। यह है कि पर वस्तु में इष्टानिष्ट कल्पना न होने दो। यही राग-द्वेष 5. दान कल्याण का प्रमुख मार्ग है। दूर करने का सच्चा पुरुषार्थ है। 6. आवश्यकताएँ कम करना भी तो त्याग है। बाह्य 6. कषायों के उदय प्राणी से नाना कार्य कराते हैं, किन्तु | वस्तु का त्याग कठिन नहीं, आभ्यन्तर कषायों की निवृत्ति ही पुरुषार्थ ऐसी तीक्ष्ण खड्गधार है कि उन उदयजन्य रागादिकों कठिन है। की सन्तति को निर्मूल कर देती है। 7. स्वयं अर्जित राग-द्वेष की उत्पत्ति को हम नहीं रोक 81, छत्रसाल रोड, छतरपुर (म.प्र.) -अप्रैल 2002 जिनभाषित 5 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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