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नैनागिरि : एक झलक
सुरेश जैन, आई.ए.एस.
लेखक 30 वर्षों से इस क्षेत्र के न्यासी तथा वर्तमान में उपाध्यक्ष हैं और तन, मन एवं धन से क्षेत्र के चतुर्मुखी विकास में संलग्न हैं। इस क्षेत्र के संरक्षण एवं संवर्धन में उनके परिवार का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। क्षेत्र के संबंध में उनका यह आलेख ऐतिहासिक, सांस्कृतिक एवं प्रामाणिक जानकारी से परिपूर्ण है।
समायातो यत्र त्रिभुवनपतिः पार्श्वजिनपो,
समीप ही दमोह तथा सागर जिले की सीमाएँ मिलती हैं। यह प्रयाता निर्वाणं हतविधिचया: यत्र मुनयः ।
सागर-कानपुर रोड पर दलपतपुर ग्राम से पूर्व की ओर 12 कि.मी. महाशृङ्गोत्तुङ्गा जिनपतिगृहा यत्र लसिताः
की दूरी पर एवं दमोह-छतरपुर रोड पर बक्स्वाहा नगर से 25 नमामो रेशन्दीगिरिमघविघाताय खलु तम्॥
कि.मी. की दूरी पर स्थित है। सघन वृक्षों, पर्वतमाला और सरोवर भारत वसुन्धरा की बुन्देलभूमि, जहाँ वीरता की गाथाओं | के मध्य एक विस्तृत परकोटे के घेरे में विविध शैलियों के प्राचीन से ओतप्रोत है, वहीं अपने अंचल में त्याग से ऐसे प्रकाशपुञ्ज को | गगनचुम्बी मेरु, मानस्तम्भ तथा उन्नत शिखर मंदिरों से शोभायमान छिपाये हुए हैं, जिनके अवलोकन मात्र से ही मानव अपने जीवन | यह क्षेत्र अपनी कलाकृति से निराला ही है। इस क्षेत्र (सम्पूर्ण का चरम पुरुषार्थ -मोक्ष प्राप्त करने में सफल होता है। इस विश्व | ग्राम)की प्रदक्षिणा करते हुए चतुर्दिक निर्मल जल युक्त नाले तथा का एक पक्ष राग के जीवन से परिपूर्ण है, वहीं दूसरा पक्ष मानव नदियाँ हैं, जिन्हें प्रकृति ने आगन्तुक महानुभावों के स्वागत में को वैराग्य संदेश देकर, मानवीय जीवन को चरम परिणति रूप | पाद-प्रक्षालनार्थ एवं मार्गजन्य थकावट निवारणार्थ निर्मित किया वेदिका पर प्रतिष्ठित कर देता है। इस द्वितीय पक्ष को उद्घाटित करने वाले हैं ये क्षेत्रराज-नैनागिरि (रेशंदीगिरि), द्रोणगिरी, पपौरा, | इतिहास के परिप्रेक्ष्य में अहार, खजुराहो, देवगढ़ आदि, जिनकी रजकण थकी-हारी मानवता | प्रत्येक तीर्थस्थल अपने में कुछ ऐतिहासिक विशेषताएँ को चिर नवीन संदेश देकर आह्लादित करती है। विश्व की सभी | समेटे हुए होता है। तीर्थस्थलों में महान आत्माओं का इतिहास संस्कृतियाँ विशिष्ट क्षेत्रों को उनकी प्राकृतिक सुषमा, जलवायु | छिपा होता है, जिनके नाम का स्मरण मात्र ही सुख शांतिवर्धक तथा अन्य सामाजिक, धार्मिक कारणों से मानवता के विकास में होता है। इस पावन क्षेत्र का इतिहास बहुत कुछ विलुप्त है, तथापि योगदान हेतु उत्कृष्ट मानती हैं। इसी संदर्भ में धर्म, दर्शन तथा | यत् किञ्चित जानकारी हमें प्राप्त होती हैं, वह यहाँ प्रस्तुत हैअध्यात्म की विशाल आधारभूमि एवं मानवीय जीवन में देवत्व आज से करीब 2750 वर्ष पूर्व इस भूमि पर तेईसवें तीर्थंकर को प्रतिष्ठित करने वाली भारतीय संस्कृति में तीर्थों का स्थान भगवान पार्श्वनाथ का समवशरण रचा गया था। उनकी पदरज से अत्यंत पवित्र एवं गौरवपूर्ण है। श्री सिद्धक्षेत्र नैनागिरि भारतीय पवित्र होकर यह स्थान पुण्य तीर्थस्थल बन गया। तपोनिधि वरदत्तादि जैनसंस्कृति-गगन का प्रकाशवान नक्षत्र है। यह संस्कृति और | (वरदत्त, गुणदत्त, इन्द्रदत्त, मुनीन्द्रदत्त, सायरदत्त) ऋषिवरों ने अध्यात्म का वह पुण्यस्थल है, जहाँ साधकों की निवृत्तिमार्गी | अपने घोर तपश्चरण द्वारा मुक्ति लक्ष्मी प्राप्त कर इस भूमि को साधना थकी-हारी मानवता को एक नया जीवन दर्शन देकर, | सिद्धभूमि बना दिया है। प्राकृत निर्वाणकाण्ड की निम्न पंक्ति द्वय आह्लादित करती है। यह क्षेत्र अध्यात्ममूलक 'श्रमण संस्कृति'का | इसे प्रमाणित करती हैंवह उन्नत प्रतीक है, जहाँ मानव किसी बंद कमरे से निकलकर
पासस्य समवसरणे, सहिया वरदत्तादि मुणिवरा पंच। खुली हवा का आनंद लेता है।
रेसन्दीगिरिसिहरे, णिव्वाण गया णमो तेसिं । नामकरण
ऐतिहासिक दृष्टि से ज्ञात होता है कि परमार शासकों के गहरवार तथा परिहार राजपूतों का शासन समाप्त होने पर | शासनकाल (9वीं से 11वीं शताब्दी) में यह ग्राम नगर रहा होगा बुन्देलखण्ड क्षेत्र में नवीं शताब्दी के प्रारंभ में सनिका या ननुका ने | किन्तु कालान्तर में मुसलमानों के आक्रमण के कारण इसका चंदेल राज्य स्थापित किया और यह प्रतीत होता है कि नैनागिरि | सांस्कृतिक वैभव समाप्त हो गया। इस क्षेत्र राज रेशंदीगिरिजी पर का पूर्व नाम इसी चंदेलवंशी राजा ननुका या ननिका द्वारा निर्मित | परम शांतिमय वातावरण के बीच अनेक प्राणियों ने निरंतर आत्म गढ़ के कारण ननुकागढ़, ननिकागढ़ या नैनागढ़ था।
कल्याण किया होगा, किन्तु कालान्तर में परिवर्तन चक्र के बीच भौगोलिक स्थिति
विस्मरण का आवरण इसके ऊपर भी पड़े बिना न रहा और यह यह ग्राम प्राचीन पन्ना राज्यान्तर्गत बक्स्वाहा परगने में एवं | क्षेत्र हजारों वर्षों के लिए पृथ्वी की परतों में सो गया। आज से आधुनिक छतरपुर जिले के दक्षिण में अवस्थित है। इस ग्राम के | करीब 300 वर्ष पूर्व बम्हौरी (छतरपुर) निवासी श्री श्यामले जी 14 अप्रैल 2002 जिनभाषित -
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